रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 159

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला-रहस्य

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यह तो उस दिव्य आनन्दमय-रसमय राज्य की चमत्कारमयी लीला है, जिसके श्रवण और दर्शन के लिये परमहंस मुनिगण भी सदा उत्कण्ठित रहते हैं। कुछ लोग इस लीला प्रसंग को भागवत में क्षेपक मानते हैं, वे वास्तव में दुराग्रह करते हैं, क्योंकि प्राचीन-से-प्राचीन प्रतियों में भी यह प्रसंग मिलता है और जरा विचार करके देखने से यह सर्वथा सुसंगत और निर्दोष प्रतीत होता है। भगवान श्रीकृष्ण कृपा करके ऐसी विमल बुद्धि दें, जिससे हम लोग इसका कुछ रहस्य समझने में समर्थ हों।

रासपञ्चाध्यायी के पाठकों को इतना तो निश्चय रूप से अवश्य ही मान लेना चाहिये कि इसमें लौकिक कामगन्ध के लेश की भी कल्पना नहीं है। यह विभूतियुक्त दिव्य चिन्मय पूर्णशक्ति के साथ सच्चिदानन्दघन परिपूर्णतम भगवान का अप्राकृत और अचिन्त्य पवित्रतम प्रेम-रस का महास्वादन है। इसी से श्रीशुकदेवजी ने इस रासलीला के श्रवण-वर्णन का महान तथा अपूर्व फल बतलाया है-‘हृद्रोग काम का समूल नाश और प्रेमरूपा पराभक्ति की प्राप्ति’ इससे सिद्ध है कि यह दिव्यरस का प्रवाह ही है, इसमें लौकिक काम गाथा का कोई सम्बन्ध ही नहीं है। श्रीशुकदेवजी कहते हैं-
विक्रीडितं व्रजवधूभिरिदं च विष्णोः
श्रद्धान्वितोऽनुश्रृणुयादथ वर्णयेद् यः।
भक्तिं परां भगवति प्रतिलभ्य कामं
हृद्रोगमाश्वपहिनोत्यचिरेण धीरः।।

‘व्रज वधुओं के साथ भगवान की इस रासक्रीड़ा का जो संशयरहित मन से श्रद्धा के साथ श्रवण और कीर्तन करेगा, वह शीघ्र ही भगवान की प्रेमा-पराभक्ति को प्राप्त होगा और उसके हृद्रोग-काम का सर्वथा विनाश हो जायगा।’

असल में भगवान की इस दिव्यलीला के वर्णन का यही प्रयोजन है कि जीव गोपियों के उस अहैतुक प्रेम का, जो श्रीकृष्ण को ही सुख पहुँचाने के लिये है, स्मरण करे और उसके द्वारा भगवान के रसमय दिव्य लीला लोक में भगवान के अनन्त प्रेम का अनुभव करे। अतः इस रासपञ्चाध्यायी का अध्ययन करते समय किसी प्रकार की भी शंका न करके इस भाव को जगाये रखना चाहिये तथा श्रद्धायुक्त हृदय से इसे भगवान की पवित्रतम लीला समझकर ही पढ़ना-सुनना चाहिये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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