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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
रासलीला-रहस्य
भगवान के ऐसे स्वरूपभूत शरीर से गंदा मैथुन कर्म सम्भव नहीं। मनुष्य जो कुछ खाता है, उससे क्रमशः रस, रक्त, मांस, मेद, मज्जा और अस्थि बनकर अन्त में शुक्र बनता है; इसी शुक्र के आधार पर शरीर रहता है और मैथुन क्रिया में इसी का शुक्र का क्षरण हुआ करता है। भगवान का शरीर न तो कर्मजन्य है, न मैथुनी सृष्टि का है और न दैवी ही है। वह तो इन सबसे परे सर्वथा विशुद्ध भगवत्स्वरूप है। उसमें रक्त, मांस, अस्थि आदि नहीं है; अतएव उसमें शुक्र भी नहीं है। इसलिये उसमें प्राकृत पान्चभौतिक शरीर वाले स्त्री-पुरुषों के रमण या मैथुन की कल्पना भी नहीं हो सकती। इसीलिये भगवान को उपनिषद् में ‘अखण्ड ब्रह्मचारी’ बतलाया गया है और इसी से भागवत में उनके लिये ‘अवरुद्धसौरत’ आदि शब्द आये हैं। फिर कोई शंका करे कि उनके सोलह हजार एक सौ आठ रानियों के इतने पुत्र कैसे हुए तो इसका सीधा उत्तर यही है कि यह सारी भागवती सृष्टि थी, भगवान के संकल्प से हुई थी। भगवान के शरीर में जो रक्त-मांस आदि दिखलायी पड़ते हैं, वह तो भगवान की योगमाया का चमत्कार है। इस विवेचन से भी यही सिद्ध होता है कि गोपियों के साथ भगवान श्रीकृष्ण का जो रमण हुआ, वह सर्वथा दिव्य भगवत-राज्य की लीला है, लौकिक काम-क्रीडा नहीं। उन गोपियों की साधना पूर्ण हो चुकी है। भगवान ने अगली रात्रियों में उनके साथ विहार करने का प्रेम संकल्प कर लिया है। इसी के साथ उन गोपियों को भी जो नित्यसिद्धा हैं, जो लोक दृष्टि में विवाहिता भी हैं, इन्हीं रात्रियों में दिव्य-लीला में सम्मिलित करना है। वे अगली रात्रियाँ कौन-सी हैं, यह बात भगवान की दृष्टि के सामने है। उन्होंने शारदीय रात्रियों को देखा। ‘भगवान ने देखा’-इसका अर्थ सामान्य नहीं विशेष है। जैसे सृष्टि के प्रारम्भ में ‘स ऐक्षत एकोऽहं बहु स्याम्।’ - भगवान के इस ईक्षण से जगत की उत्पत्ति होती है, वैसे ही रास के प्रारम्भ में भगवान के प्रेम-वीक्षण से शरतकाल की दिव्य रात्रियों की सृष्टि होती है। मल्लिका-पुष्प, चन्द्रिका आदि समस्त उद्दीपन सामग्री भगवान के द्वारा वीक्षित है अर्थात लौकिक नहीं, अलौकिक-अप्राकृत है। गोपियों ने अपना मन श्रीकृष्ण के मन में मिला दिया था। उनके पास स्वयं मन न था। अब प्रेम-दान करने वाले श्रीकृष्ण ने विहार के लिये नवीन मन की-दिव्य मन की सृष्टि की। योगेश्वरेश्वर भगवान श्रीकृष्ण की यही योगमाया है जो रासलीला के लिये दिव्य स्थल, दिव्य सामग्री एवं दिव्य मन का निर्माण किया करती है। इतना होने पर भगवान की बाँसुरी बजती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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