रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 103

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला-चिन्तन-2

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स्वर्गाश्रम (ऋषिकेश) में दिये गये प्रवचन
(7)
भगवानपि ता रात्रीः शरदोत्फुल्लमल्लिकाः।
वीक्ष्यं रन्तुं मनश्चक्रे योगमायामुपाश्रितः।।

यह रासपञ्चाध्यायी का पहला श्लोक है। योगमाया का क्या अभिप्राय है इसको विभिन्न सन्तों ने विभिन्न प्रकार से देखा और यह भगवान की योगमाया है इसलिये सभी को देखना ठीक है। योगमाया के जितने अर्थ हैं वे सभी समीचीन हैं और सभी यहाँ पर लागू होते हैं। भगवान ने अपनी परम मधुर रासलीला में जिस प्रकार अचिन्त्य महाशक्तिरूपा योगमाया का प्राकट्य किया उसी प्रकार से इसमें अन्यान्य विशेषताएँ और भी हैं। थोड़ा-सा उसका रस और ले लिया जाय तो ‘माया दम्भे कृपायां च’ वचनानुसार माया शब्द का अर्थ कृपा भी होता है। तो ‘योगमायामुपाश्रितः’ इस वाक्य का इसके अनुसार व्याख्या करें तो ‘योगे आत्मना सह मिलने या माया कृपा तामुपाश्रिता भगवान रन्तु मनश्चक्रे’ - श्रीभगवान ने श्रीगोपांगनाओं के साथ रमण करने की इच्छा की तब उन्होंने इस प्रकार की कृपा को प्रकट किया कि जिससे श्रीगोपांगनाओं के अबाध-मिलन में कोई बन्धन न रहे।

भगवान के साथ मिलने के लिये कोई साधन यदि है तो भगवान की एकमात्र कृपा ही है। कोई मनुष्य कोई साधक यह चाहे कि भगवान की कृपा को बाँधकर अपनी शक्ति से हम भगवान से मिल लेंगे तो यह सम्भव नहीं है। कितना ही साधन किया जाय और किसी भी योग का आश्रय लिया जाय परन्तु भगवद्दर्शन, भगतव मिलन बिना भगवान की कृपा के कभी सम्भव नहीं है। यह सच्ची बात है कि भगवान में अपनी कृपा-वितरण में पक्षपात नहीं है। भगवान अपनी कृपा को बाँटने में कहीं पक्ष करते हों सो बात नहीं परन्तु भक्त की आकुल उत्कण्ठा के बिना नहीं होता है। भक्त अत्यन्त व्याकुल होकर जब उत्कण्ठित होता है भगवान से मिलने के लिये उस समय जैसा कृपा का प्राकट्य होता है वैसा अन्य समय नहीं होता है। कृपा सर्वदा है, सदा है पर आकुल-व्याकुल उत्कण्ठा में वह कृपा प्रकट होकर जितना कार्य करती है उतना कार्य साधारण दशा में नहीं करती है। भगवान की जितनी भी अन्य लीलायें हैं; उन सभी लीलाओं के पार्षदों में-जितने पार्षद आज तक लीला में हुये-श्रीगोपांगनाओं के साथ भगवान के मिलन में श्रीगोपांगनाओं के मन में जिस प्रकार की उत्कट उत्कण्ठा थी ऐसी कहीं आज तक हुई नहीं। इसलिये ऐसा मिलन कहीं नहीं हुआ। जैसे गन्ने में स्वभावतः ही रस परिपूर्ण है परन्तु जितना अधिक उसका पेषण होता है उसी परिमाण में रस निर्गत होता है। रस बाहर निकलता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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