मीराँबाई की पदावली पृ. 50

मीराँबाई की पदावली

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मीराँबाई व संत तथा भक्त स्त्री कवि

मीरांबाई की तुलना हम, इसी प्रकार, उक्त पुरुष भक्तों व कवियों के सिवाय कतिपय संत, भक्त व प्रेमी की श्रेणियों वाली कवयित्रियों के साथ, पृथक रूप से भी कर सकते हैं। हिंदी साहित्य के इतिहास में मीरांबाई की तुलना में आने योग्य उनके पूर्व की किसी भी कवयित्री का नाम हमें नहीं मिलता। उनके अनन्तर आने वाली संत श्रेणी की कवयित्रियों में अठारहवीं ईस्वी शताब्दी की सहजोबाई व दयाबाई के नाम लिए जाते हैं। ये दोनों आपस में गुरु बहनें थीं और अपनी भावनाओं के अनुसार, अपने गुरु श्री चरणदास जी महाराज को स्वयं भगवान् से भी ऊँचा स्थान देती हुई जान पड़ती थीं। इनमें से सहजोबाई ने प्रेम एवं दयाबाई ने विरक्ति का विशेष रूप से विशद वर्णन किया है।

सहजोबाई द्वारा किया हुआ प्रेम दीवाने का वर्णन बहुत सुन्दर है और उनके पद 'मेरे इक सिर गोपाल और नहीं कोऊ भाई,'[1] आदि में मीराँ के मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई, आदि [2] की छाप, स्पष्ट लक्षित होती है, किंतु तो भी इनकी पंक्तियां सर्वत्र संत मत से ही पूर्ण प्रभावित हैं और उनमें व्यक्त किया हुआ हृदय पक्ष मीरां की गंभीरता को प्राप्त करने में असमर्थ है। इसी प्रकार भक्त श्रेणी की कवयित्रियों में इनके साथ तुलना के लिए रसिक बिहारी या बनीठनी जी[3]तथा सुंदरि कुंवरि बाई[4]के नाम लिए जाते हैं। इनमें से बनीठनी जी प्रसिद्ध भक्त नागरीदास की दासी और पासवान थीं और सुन्दरि कुंवरिबाई उन्हीं की बहन थीं, अतएव इन दोनों में, एक प्रकार से भावज ननद का संबंध था। बनीठनी जी की भाषा अधिक साफ सुथरी है और उनके पदों में मीरांबाई की शैली का प्रभाव स्पष्ट दीख पड़ता है, किंतु उनके भावों में उस तन्मयता का अभाव है जिसके कारण मीरां की कविता उच्च श्रेणी की समझी जाती है।

सुन्दर कुँवरिबाई के जीवनकाल की अनेक घटनाएं, बहुत कुछ मीराँबाई की ही भाँति पीहर व ससुराल दोनों जगह अत्यंत कलह रंजित बाधा पूर्ण थी,[5] किन्तु मीराँबाई के समान उन्होंने इन जैसी विपत्तियों द्वारा वैसे वैराग्य की शिक्षा ग्रहण नहीं की और न एक सुयोग्य कवि परिवार में पली जाने पर भी उन्होंने वैसी प्रतिभा ही दिखलाई। उन्होंने कई रचनाओं द्वारा भगवान की लीलाओं का वर्णन किया है और भिन्न भिन्न छन्दों के प्रयोग द्वारा अपना कवि कौशल भर ही दिखलाया है। भगवतलीलाओं के वर्णन में इनसे कहीं अधिक सफल हम गंगाबाई को कहेंगे जिनका जीवन काल सं. 1628 वि. ( सन 1571 ई. ) से लेकर 108 वर्षों तक बतलाया जाता है।[6] गंगाबाई वल्लभ संप्रदाय की अनुगामिनी थीं और कहा जाता है कि, उन्हें भगवतलीलाओं की प्रत्यक्ष अनुभूति भी हुआ करती थीं। वे उन्हीं घटनाओं को अपने पदों द्वारा वर्णन कर सदा श्रीनाथ जी को समर्पित कर देती थी, और कदाचित्, इनका रचयिता स्वयं भगवान को ही मानकर इनकी अंतिम पंक्तियों में, अपने नाम की जगह, प्राय: सर्वत्र ‘विट्‌ठल गिरिधरन’ लिखा करती थीं। परंतु, जान पड़ता है, कि, उन्होंने लीला वर्णन के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं लिखा। उनकी उपलब्ध रचनाओं में हमें उच्च कोटि के कवित्व के उदाहरण अवश्य मिलते हैं, किंतु मीराँबाई जैसी निजी अनुभव की सफल अभिव्यक्ति के दर्शन उनमें हमें कहीं नहीं होते।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मीरांबाई, सहजोबाई, दयाबाई का पद्य संग्रह ( साहित्य भवन, प्रयाग पृ. 53 )।
  2. देखो पद 15
  3. पृ. सं. 1822 वि. = सन 1765 ई.
  4. ज. सं. 1791 वि. = सन 1734 ई.
  5. महिला मदुवाणी, पृ. 105 – 6।
  6. डा. पी. द. बडथ्वाल : गंगाबाई, ( सुधा, वर्ष 9, खंड 2 संख्या 2, पृ. 93 )।

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