मीराँबाई की पदावली पृ. 49

मीराँबाई की पदावली

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वही

परन्तु कबीर का प्रेम तो भी किसी कोरे भावुक की भावुकता मात्र नहीं है और न इसी कारण उसमें मीरा के स्त्री-सुलभ हृदय के उन्माद को ही स्थान है। वह मूलत: अद्वैतवाद के आत्मानुभव द्वारा अनुप्राणित ए‌वं दास्य भाव की भावना द्वारा भी व्यवहारत: प्रभावित होने के कारण अधिक संयत व निस्तरंग है। कबीर की प्रेम-प्रदर्शन शैली में, इसी कारण अन्य रहस्यवादी कवियों की कल्पना एवं संकेत को ही प्रधानता दी गई है। उसमें मीरां की जैसी वास्तविक भावनाओं का प्रत्यक्षीकरण नहीं है बल्कि भावों की पूर्ण अभिव्यक्ति के लिए अन्योक्तियों तक से काम लिया गया है।

कबीर के 'राम' की भावना भी इसी प्रकार, निर्गुण व सगुण दोनों से परे किसी परमपद के द्वारा प्रभावित है, किंतु मीरां के हरि अविनासी में उक्त दोनों का सामंजस्य है तथा यदि आत्मज्ञानी कबीर का लय अपने राम के साथ 'ज्यूँ जल में पैसि न निकसै, त्यूँ ढुरि वा घुलमिल कर एक हो जाना है तो प्रेम-पुजारिन मीरां अधिकतर अपने पिव के पलँगा पर अन्त में जाकर 'पौढ़ना' और उस हरि के रंग में रंजित हो जाना ही चाहती हैं[1] मीरां को कबीर की भाँति न तो अवतार-वाद के प्रति अनास्था हैं और मूर्तिवाद से ही कोई विरोध है – वे अपने गिरधर गोपाल को नित्य नाच गाकर रिझाना तक पसंद करती हैं। मीरांबाई। संत कवियों द्वारा अनुमोदित आत्मानुभव संबंधी साधना से भी, कदाचित् पूर्ण परिचित रही, किंतु मुख्य रूप से उन्होंने अपने लिए कीर्तन को ही स्वीकार किया। कहना न होगा कि पुरुष कबीर द्वारा माधुर्य-भाव का निर्वाह कवि की प्रतिभा अथवा अभिनय चातुर्य का भी परिणाम हो सकता है, किंतु मीरां का माधुर्यभाव एक रमणी हृदय की ही सच्ची मनोवृत्ति है, जिसे स्वरूप प्रदान करने में उनके जीवनवृत्त की अनेक श्रृंखलाबद्ध घटनाओं ने भी अपना हाथ बंटाया था।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पद 14

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