मीराँबाई की पदावली पृ. 48

मीराँबाई की पदावली

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मीरांबाई व कबीर

रैदासजी के साथ मीरां के भावसाम्य की उक्त सामग्रियों को देखते हुए भी, हम कई बातों में, उन्हें संत परंपरा के प्रमुख प्रवर्तक कबीर साहब द्वारा ही कहीं अधिक प्रभावित पाते हैं। कबीर साहब रैदासजी के समकालीन के और, कदाचित्, आयु में कुछ उनसे बड़े भी थे। हिंदी वाड़्मय के अंतर्गत विशेषकर उन्हीं के आदर्शों पर, संतमत का पीछे से प्रचार में आना बतलाया जाता है। कबीर एवं मीरां की रचनाओं में भाव साम्य के उदाहरण प्रचुर मात्रा में दीख पड़ते हैं।[1] वास्तव में कबीर एवं मीरां–इन दोनों–की ही भावनाएं मुख्यत: अपने निजी अनुभव पर आश्रित थीं और दोनों में स्वातंत्र्य प्रेम तथा निर्भयता के भाव कूट कूट कर भरे थे। वे दोनों अपने-अपने सांसारिक या सामाजिक बंधनों वा परिस्थितियों को सदा उपेक्षा की दृष्टि से ही देखते रहे और सर्वसाधारण की कड़ी आलोचनाओं का भी इन दोनों ने पूर्णतया तिरस्कार किया। मीरां ने अपने पदों द्वारा सदा दाम्पत्य भाव के गीत गाए और कबीर ने भी, बहुत कुछ उसी ढंग से, माधुर्य भाव से ओत प्रोत उनके दोहों चौपाहियों एवं पदों की भी रचना की।

मीरां जिस प्रकार जगदीस द्वारा सुपने में अपने परण दिए जानेकी ब्यौरेवार कहानी कहती हैं,[2] प्राय: उसी प्रकार कबीर भी पुरिष एक अविनासी द्वारा अपने ब्याहि दिए जाने की प्रत्यक्ष विधि का वर्णन करते हैं[3] तथा जिस प्रकार मीरां उनके प्रति 'औढ़ी चूनर प्रेम की, गिरधर जी भरतार'[4] कहती हैं, प्राय: उसी प्रकार कबीर भी 'हरि मेरा पीव मैं हरि की बहुरिया' कहकर अपने 'राम से मिलन के ताई' स्यंगार किए' बैठे दीख पड़ते हैं[5] और जिस प्रकार मीरां अपने साहिब को पाकर उन्हें अपने नैनन बनज बसाने को उद्यत हैं और उन्हें देखती हुई भयवश पलक तक मारना नहीं चाहती[6], प्राय: उसी प्रकार कबीर भी इस बात के लिए लालायित हैं कि उन्हें किस प्रकार अपने 'नैनां अंतरि' स्वागत करके बिठाऊँ और निस दिन 'निरषा' भी करूं।[7] इसी प्रकार यदि मीरां के कलेजों को विरह भँवग डंस देता है[8] तो कबीर के साधू के विषय में भी वही 'विरह भुवंगम पैसिकरि' 'कलेजै घाव' कर देता है[9] तथा यदि मीरां की काया को विरह नागण डस लेती है और उसके विष की प्रत्येक लहर पर उनका जिव जाने लगता है[10] तो कबीर के भी तन मन को प्राय: उसी प्रकार की भुजंग भामिनी ऐसे डसती हैं कि लहरों का कोई वारापार ही नहीं रहता[11] और यदि विरहणि मीरां सारे जगत के सोने पर भी जागती बैठी हुई अँसुवन की माला गूंथा करती है[12] तो दुखिया दास कबीर भी सुखिया संसार को सदा चैन पूर्वक खाता और सोता पाकर जागते व रोते रहा करते हैं।[13] मीरां जिस प्रकार एक रंगमहल की रमणी की स्थिति में रहकर अपने प्रियतम के वियोग में निरंतर तड़पा करती हैं, ठीक उसी प्रकार, कबीर की आत्मा भी अपने कायामहल के भीतर, बंद दुलहिन की भाँति, सदा विरह वेदन सहा करती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. इसके लिए ‘पदावली’ की ‘टिप्पणी’ भी देखी जा सकती है।
  2. पद 27
  3. ‘कबीर ग्रंथावली, पद 1 पृ. 87।
  4. पद 30
  5. वही, पद 117, पृ. 125।
  6. पद 12
  7. वही, साखी पद 2, पृ. 19।
  8. पद 91
  9. वही, साखी पद 18, पृ. 9।
  10. पद 75
  11. वही, पद 308, पृ.192।
  12. पद 86
  13. कबीर ग्रंथावली, साखी 45, पृ. 11।

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