मीराँबाई की पदावली पृ. 44

मीराँबाई की पदावली

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मीराँबाई व सूफी कवि

मीरांबाई की तुलना, उनके अनेक पदों द्वारा प्रदर्शित रहस्योन्मुख भावनाओं के कारण, सूफी कवियों से भी की जा सकती है। सूफी लोग दार्शनिक दृष्टि से अद्वैतवादी होते थे और अपनी रचनाओं द्वारा सदा आत्मविद्या, आचार व नीति के उपदेश दिया करते थे। उनकी वर्णन शैली भी, उनकी मसनवियों के कारण, किसी भी बात को ‘कथाच्छेलन’ कहने वाली परिपाटी का ही अनुसरण करती थी। तो भी अपनी साधनाओं के विचार से वे कई बातों में, वैष्णव भक्तों से बहुत कुछ समानता रखते थे। उनका ‘महबूब’ माधुर्य भाव के ‘प्रियतम’ का ही अन्य रूप था और उनकी ‘शरीअत’, ‘तरीकत’, ‘हकीकत’ व ‘मार्फत’ नाम की चार अवस्थाओं में भी एक प्रकार से, वैष्णवों की नवधाभक्ति के प्राय: सारे भाव आ जाते थे। दोनों के लिए अंत:करण की निर्मलता एवं प्रेम की एकांतिका अपेक्षित थी और दोनों ही अपने इष्टदेव के रूप की झलक सर्वत्र देखा करते थे। दोनों को ही भजन व कीर्तन प्रिय थे और मौलाना रूम द्वारा प्रचारित मौलवी पंथ में मीरां की भाँति प्रेमावेश में आकर नृत्य करना तक प्रचलित था। सूफी अपनी ‘मार्फत में’ वैष्णवों के आत्मनिवेदन की ही भाँति पूर्ण आत्मसमर्पण का भाव रखते थे। मौलाना रूम के शब्दों में वे सदा मानों यही कहा करते थे।

मन अज आलम तुरा तनहा गुज़ीनम् ।
रवादारी के मन गमगीं नशीनम् ।।

बजुज आंचे तू खाही मनचे खाहम ।
बजुज़ आंचे नुमाई मनचे वीनम् ।।

मरा गर तू चुनादारी चुनानम् ।
मरा गर तू चुनी खाही चुनीनम्॥आदि॥[1]

अर्थात सारे संसार में केवल एक तुझको ही प्यार करता हूँ और तेरी ही इच्छा के अनुसार मैं अकेला बैठा वक्त गुजारता हूँ। जो कुछ भी तेरी इच्छा है उसके अतिरिक्त मेरी कोई दूसरी इच्छा हो ही क्या सकती है ? जो कुछ तू मुझे दिखाता है उसके अतिरिक्त मैं और कुछ देख ही क्या सकता हूँ ? ..... तू मुझे जिस प्रकार भी रखना चाहे उसी प्रकार रहूँ, इस भाँति रक्खे तो ऐसे ही और अन्य प्रकार से तो वैसे ही। कहना न होगा कि इन पंक्तियों में ‘श्री

गिरधर के घर’ जाने को उद्यत और उसके ऊपर अपना सर्वस्व तक ‘ बार-बार बलि’ करने वाली मीरां के हार्दिक भाव स्पष्ट रूप से लक्षित होते हैं[2]। वैष्णवों का अ‌वतारवाद सूफियों के सर्वात्मवाद से सर्वथा भिन्न प्रतीत होने पर भी, अपने मूर्तिवाद एवं नवधाभक्ति की रहस्यभरी भावनाओं के कारण, वस्तुत: व्यापक रहस्यवाद के ही अंतर्गत आ जाता है और तदनुसार, इन दोनों के आदर्शों पर अलग-अलग चलने वाले साधकों की विचार धाराओं व चेष्टाओं में भी हमें कोई मौलिक अंतर नहीं दीख पड़ता। निर्गुणवाद एवं सगुणवाद में, व्यापक दृष्टि से विचार करने पर कोई भेद नहीं है। अस्तु .....

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्री बांके बिहारी व श्री कन्हैयालाल : ‘ईरानी के सूफी कवि’ पृष्ठ 200।
  2. देखो पद 17

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