मीराँबाई की पदावली पृ. 43

मीराँबाई की पदावली

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मीराँबाई व घनानंद तथा नागरीदास

सूरदास एवं मीराँबाई के बीच एक बहुत बड़ा अंतर इस बात का भी है कि सूर का अंतिम लक्ष्य अपने इष्टदेव के समक्ष केवल लीलापदगान करने की जान पड़ता है, किंतु मीरां का ध्येय अपने 'सांवरों' के प्रति एक तड़पते हृदय की ‘दरद’ को भी प्रकट करना है। मीरांबाई की तुलना हम इस बात को दृष्टि में रखते हुए, विरही, कवि घनानंद के साथ कहीं अधिक उपयुक्त ढंग से कर सकते हैं। घनानंद का जन्म मीरांबाई से लगभग डेढ़ सौ से अधिक वर्ष पीछे हुआ था[1] और उनकी रचनाएं, पदों में न होकर, अधिकतर कवित्त व सवैयों में ही पाई जाती हैं। दोनों का प्रेम, मूलत: ईश्वरोन्मुख होने कारण, अत्यन्त गूढ़ किन्तु नैसगिंक था और दोनों ने उसके गहरे अनुभव के कारण, आत्मसमर्पण को ही अपना सीधा व सरल मार्ग बना रखा था। दोनों की विरह वेदना अत्यंत तीव्र जान पड़ती है, किंतु अपनी गहरी पीर का भी प्रकाशन वे किसी आवेश के साथ करते हुए नहीं दीखते। वे अपने हृदय के मधुर भाव को सहर्ष वहन करते हैं और ऐसी दशा में, वे यदि कुछ बोल भी उठते हैं तो किसी कटुता के भाव से नहीं, केवल आत्मीयता के ही नाते और उपालम्भ के ही रूप में। दोनों के विरह-वर्णन में मानसिक वेदना की प्रधानता है, किंतु घनानंद ने शारीरिक यातना की उत्कटता को भी बड़े अच्छे ढंग से दर्शाया है।

घनानंद ने विरह-लीला की ‘अजौ धुनि बाँसुरी की कान बोलै’ आदि पंक्तियों ए‌वं ‘सुधि सब भाँतिन सों बेसुधि करति है’ में पूर्ण होनें वाले कवित्त द्वारा अपने स्मृति जनित कष्ट का जो स्पष्ट व सुंदर शब्द चित्रण किया है, वह कदाचित्, एकदम बेजोड़ है। इसी प्रकार उनके ‘बाबरे’ ‘मन’ की दशा और ‘धरनी में धंसौ के अकासहिं चीरौं’ वाली उद्गमयी उक्ति में जिस अनोखी, किंतु स्वाभाविक, भावनाओं का दिग्दर्शन कराया जाता है उनका अन्यत्र मिलना दुर्लभ है। तो भी विरह की गहरी अनुभूति और् उसके प्रदर्शन की स्पष्टता में मीरां घनानंद से किसी प्रकार घटकर नहीं दीखतीं। विरह-निवेदन की क्रिया में घनानंद मीरां से अ‌वश्य बढ़ जाते हैं। घनानंद विरह निवेदन में एक असमर्थता व निरूपाता प्रेरित आश्रित का अनूठा अनुरोध है जो विवशता से भरी हुई मीरां की बेचैनी से भी कहीं अधिक प्रभावशाली बन जाता है।

उसके एक एक शब्द से किसी बैठते हुए दयनीय हृदय की दर्द भरी आह निकलती जान पड़ती है। घनानंद अपने विरह निवेदन में, वास्तव में, अद्व‌ितीय हैं। घनानद में कलापक्ष भी मीरां से कहीं अधिक स्पष्ट है और कवि कौशल में वे मीरां से अधिक प्रवीण हैं। इसी प्रकार घनानंद की भाषा साफ सुथरी व बिखरी हुई ब्रजभाषा है किंतु मीरां के पदों में अनेक भाषाओ की पुट देख पड़ती है। मीरांबाई के साथ कभी कभी घनानंद के प्रियमित्र भक्त नागरीदास की भी तुलना की जाती है। नागरीदास ने, श्रीराधा कृष्ण की भक्ति से प्रेरित हो अनेक सुंदर ग्रंथों की रचना की है। वे अपने प्रेम की तन्मयता में बहुत कुछ मीरां के ही समान थे और उनका भी हृदय, मीरां की ही भाँति, अलौकिक सौंदर्य द्वारा प्रभावित था। परंतु उनके प्रेमोन्माद प्रदर्शन पर सूफियों अथवा गौड़ीय संप्रदाय वालों की छाप मीरां से कहीं अधिक दीख पड़ती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. परशुराम चतुर्वेदी विरही कवि घनानंद, हिंदुस्तानी (भाग 1 अंक 2, 1931) हिंदुस्तानी एकेडेमी, प्रयाग।

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