मीराँबाई की पदावली पृ. 34

मीराँबाई की पदावली

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भाषा

यह भाषा उस समय अवन्ती से लेकर दचिणी पंजाब तक सारे देश की एवं ब्रज की मुख्य भाषा हो चली थी।

विकास

13वीं व 14वीं शताब्दियों के अनन्तर, सथानभेद के कारण, उक्त नागर वा शौरसेनी के भीतर भी बहुत कुछ अन्तर लक्षित होने लगा। आरंभ में, पश्चिम की ओर, इसका साहित्यिक रूप में प्रयोग करने वाले या तो चारण भाट या जैन कवि थे अथवा ढाढी आदि वे जातियाँ थीं जो बहुधा गाती बजाती फिरा करती थीं और, संस्कृत के साथ इनका कम सम्बन्ध रहने के कारण, इनकी भाषा पर तत्सम अथवा मद्भव शब्दों तक का प्रभाव बहुत ही कम पड़ पाया। इस कारण इनकी भाषा में प्राकृत व अपभ्रश की अनेक विशेषतायें संरक्षित रह गईं और कई अन्य कारणों से भी वह पूर्व की भाषा की अपेक्षा अपने प्रान्तीय रूप में ही अधिकतर सीमित रह गई। परन्तु पूर्व की ओर की भाषा पर संस्कृत का प्रभाव बहुत अधिक पड़ा और, अपने लोकप्रिय साहित्य की विशेषताओं के कारण, वह अन्य स्थानों में भी अपनायी जाने लगी।

आगे चल की उक्त दोनों भाषायें ही क्रमशः राजस्थानी व ब्रजभाषा कहलाकर प्रसिद्ध हुईं। और जब राजस्थानी वालों ने, ब्रजभाषा के प्रभाव में आकर लिखना पढ़ना आरंभ किया तो उनकी इस नवीन पद्धति पर की गई रचना को ‘पिंगल’ और प्राचीन ठेठ पद्धति पर प्रस्तुत हुई रचना को, कदाचित् उसी के तुक पर, ‘डिंगल’ कहने लगे। इसी कारण पिंगल भाषा के काव्य में यदि संस्कृत व प्राकृत के रीतिशास्त्र का अनुसरण होता है तो डिंगल काव्य में एक स्वतंत्र परम्परा का।

विशेषतायें

कहना न होगा कि मीराँबाई की पदावली के अन्तर्गत आये हुए राजस्थानी भाषा के पद उक्त पिंगल भाषा की परम्परा के ही अनुसार रचे गए हैं। अतएव शुद्ध ब्रजभाषा के साथ इसकी भिन्नता समझने के लिए राजस्थानी की कुछ विशेषताओं का जान लेना बहुत उपयोगी होगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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