मीराँबाई की पदावली पृ. 33

मीराँबाई की पदावली

Prev.png
भाषा
मिश्रित भाषा

मीराँबाई की पदावली उनके फुटकर पदों का एक संग्रहमात्र है और उसके प्रत्येक पद की भाषा एक ही प्रकार की नहीं है। उसमें बहुत से पद ऐसे हैं जो राजस्थानी में हैं और कुछ की भाषा ब्रजभाषा वा गुजराती कही जा सकती है। किन्तु अधिकांश में राजस्थानी ब्रजभाषा, गुजराती अथवा कहीं-कहीं पंजाबी, खड़ी बोली व पूरबी तक का न्यूनाधिक सम्मिश्रण है। कई स्थलों पर, राजस्थानी कि अतिरिक्त ब्रजभाषा के भी विकारी रूपों के प्रयोग हुए हैं और ब्रजभाषा, पंजाबी गुजराती तथा खड़ी बोली की विभक्तियों का भी व्यवहार है। व्याकरण के नियम, साधारणतः, भाषा के अनुसार ही बरते गये हैं। मीराँबाई के पदों के विषय में भी, कबीर साहब आदि की रचनाओं की ही भाँति यह कहना कठिन है कि जिस रूप में वे पाये जाते हैं ठीक उसी रूप में वे रचे गए भी होंगे। मीराँबाई मेड़ता व मेवाड़ से लेकर, कुछ न कुछ दिनों तक वृन्दावन अथवा द्वारकापुरी में भी रह चुकीं थीं, अतएव उनकी रचनाओं में उन स्थानों की भाषाओं के भिन्न भिन्न प्रयोगों का भी पाया जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं, इसके सिवाय मीराँबाई के पदों की भाषा शैली भी अधिकतर सीधी-सादी, सरल व चलती सी रही और अपने सुन्दर भावों के कारण माधुर्यपूर्ण होने से, वे सर्वसाधारण, द्वारा बहुधा अपनाये जाते रहे। लोकप्रिय एवं गाने योग्य होकर ही वे बहुत दिनों तक एक से अधिक प्रान्तों में बराबर प्रचलित रहते आये और समयानुसार उन पर भिन्न भिन्न भाषाओं का प्रभाव, स्वभावतः पड़ता गया। बहुत से पदों की आधुनिकता देखकर इसीलिए, उन्हें कम से कम भाषा की दृष्टि से ही, मीराँरचित कहने का साहस नहीं होता।

राजस्थानी

राजस्थानी भाषा अपभ्रंश के एक पुराने विकसित रूप का नाम है। अपभ्रंश की उत्पत्ति, विशेष कर पश्चिम व पश्चिमोत्तर भारत में, विक्रम की दूसरी एवं तीसरी शताब्दियों में हुई थी। उस समय के लगभग एक आभीरी अथवा गुर्जर नामक विदेशी जाति ने, बाहर से आकर, उक्त प्रदेश के कुछ अंशों पर अधिकार कर लिया और उसकी आभीरी भाषा उनके दक्षिणी भाग में, राजभाषा के रूप में बरजी जाने लगी। इस आभीरी के प्रभाव में आकर वहाँ की प्रचलित प्राकृत भाषा का रूपक्रमशः विकृत होता हुआ, अपभ्रंश कहला कर प्रसिद्ध हुआ और आगे चलकर, यही अपभ्रंश भाषा, सातवीं शताब्दी में, अपने साहित्यिक रूप में भी परिणत हो गई। उसके प्रचार की सीमा, क्रमशः फैलती हुई, अन्त में दसवीं शताब्दी तक, पश्चिम से लेकर पूर्व में मगध और दक्षिण में सौराष्ट्र तक पहुँच गई थी। परन्तु 11 वीं शताब्दी के लगभग, प्रान्त भेद के कारण एक ही भाषा के अन्तर्गत उपभाषा में भी बनने लगी और धीरे धीरे उसके भीतर उस रूप का भी आविर्भाव हुआ जिसे नागर व शौरसेनी नाम दिया जाता है।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः