मीराँबाई की पदावली पृ. 2

मीराँबाई की पदावली

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विषय प्रवेश

हिन्दी-साहित्य के प्रारम्भिक काल में ज्ञानयोग की धारा का प्रभाव हमें, सबसे पहले बौद्ध सिद्धों की रचनाओं में ही लक्षित होने लगता है। सिद्ध लोग प्राचीन सहजिया सम्प्रदाय के अनुयायी थे और ज्ञान प्रयोग बौद्ध धर्म द्वारा स्वीकृत ध्यानयोग के अनुसार एक प्रकार की योग साधना भी किया करते थे। उनका अंतिम लक्ष्य, अपने चंचल चित्त के मलों को, वस्तुस्थिति के ज्ञान द्वारा दूर कर उसे स्थिर व शून्यवत बना, निर्वाण प्राप्त करना था जिनकी रहस्यमयी बातों को पूर्ण रूप से व्यक्त करने की चेष्टा में उन्होंने, रूप को व अन्योक्तियों की सहायता से, अनेक चर्यागीतियों की रचना की थी। उनकी साधना के अन्तर्गत किसी ईश्वर की भावना नहीं रहीं, परन्तु उनके वर्णनों में ईडा-पिंगलादि के चित्रण अथवा वायुविरोध सम्बन्धी विवरण कुछ अंशों तक, वैसे ही मिलते हैं जैसे प्राचीन योग सम्बन्धी ग्रन्थों में पाये जाते हैं। सिद्धों के अनन्तर ईश्वरवादी नाथ पंथियों ने अपने काया शोधन के लिए योगाभ्यास को कुछ और भी विस्तार के साथ अपनाया था और बस्ती व शून्य दोनों से परे रहने वाले ‘केवल’ रूपी परमात्मा की अवस्था तक पहुँचने की जुगतियों का उपदेश दिया था। अतएव उनकी पुरानी हिन्दी ‘सवदियों’ व पदों पर हमें उक्त विचार धारा की छाप कहीं और भी स्पष्ट रूप में दिखलाई पड़ती है। नाथ पंथ द्वारा प्रभावित ज्ञानेश्वरादि महाराष्ट्रीय संतों की रचनाओं पर आगे चलकर, हमें इसके साथ-साथ कुछ भक्ति भाव के भी प्रभाव दीखने लगते हैं और हिन्दी के संत साहित्य की रचना होते-होते इसके साथ प्रेमानुबंध की धारा भी आकर मिल जाती है।

हिन्दी साहित्य में प्रेमानुबंध की धारा का प्रथम प्रवेश, कदाचित लौकिक भावनाओं को ही लेकर हुआ था, क्योंकि इस विषय के जो कुछ भी उदाहरण हमें राजस्थानी हिन्दी के फुटकल 'दूहों' 'रसायणों' प्रेमानुबंध या प्रेम कहानियों में भी अब तक मिल पाये हैं उनमें अधिक से अधिक लौकिक व्यक्तियों व श्रृंगारिक भावनाओं का ही समावेश है। मैथिल कवि विद्यापति के पदों में उक्त प्रेम व श्रृंगार का जो कुछ अलौकिक व पौराणिक रूप हमें लक्षित होता है वह संस्कृत के भक्त कवि जयदेव के प्रभावों का परिमाण है। उस समय, अधिक पूर्व की ओर, बंगला के कवि चंडीदास भी उसी आदर्श द्वारा प्रभावित हुए थे और पश्चिम के गुजराती भक्त कवि नरसी मेहता को भी किसी वैसी ही शक्ति ने प्रेरणा पहुँचायी थी। परन्तु इस अलौकिक प्रेम की प्रणाली में परमात्मा के सगुण रूप को ही स्‍थान मिला था। उसके निर्गुण रूप की झलक हिन्दी साहित्य पर सर्वप्रथम एक दूसरी ओर से प्रतिबिंवित होती दीख पड़ी। उस समय के लगभग भारत में चारों ओर सूफी-सिद्धान्तों का भी प्रचार बराबर बढ़ता जा रहा था और सूफियों के 'प्रेम' व 'पीर' की परम्परा का प्रभाव, उस समय की आध्यात्मिक रचनाओं पर सर्वत्र पड़ता जा रहा था। इस कारण विक्रम की पन्द्रहवीं व सोलहवीं शताब्दी वाले हिन्दी के संत कवियों ने भी उन्हें, अपनी वैसी फुटकल रचनाओं में, एक प्रमुख स्थान दिया और उन्हीं को लेकर, फ्रारसी की मसनवी पद्धति के आदर्शों पर, यहाँ की प्रेम कहानी ने भी एक नवीन रूप ग्रहण कर लिया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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