मीराँबाई की पदावली
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तदनुसार कबीर साहब, रैदास व नानक देव की रचनाओं में हमें प्रेमानुबंध की इस धारा का हो बहुत कुछ प्रभाव दीख पड़ता है और कुतबन, मंखन व जायसी के समय तक इसके आदर्शो पर लिखी गयी कतिपय प्रेम गाथाओं तक का पता चलने लगता है। हिन्दी-साहित्य के अन्तर्गत उक्त तीसरी अर्थात् भक्तिभाव की धारा का प्रवाह कुछ पीछे जाकर लक्षित हुआ। भक्तिभाव का प्रारम्भ, वास्तव में, सब से उत्तरी भारत में ही हुआ था, किन्तु परिस्थितियों के प्रति भक्तिभाव कूल पड़ने पर उसे, कुछ काल के लिए, दक्षिण भारत के आलवारों व आचार्यो के यहाँ आश्रय ग्रहण करना पड़ा और विक्रम की चौदहवीं शताब्दी के लगभग वह पहले-पहल वहाँ से और भी प्रबल होकर अपने मूल स्त्रोत की ओर वापस आया। हिन्दी के प्रारम्भिक ‘दूहों’ में हमें धर्म व नीति की थोड़ी बहुत मात्रा अवश्य दीख पड़ती है, किन्तु भक्ति भाव के उदाहरणों का उनमें प्रायः सर्वथा अभाव है। इस विचार-धारा वाली हिन्दी कविता के नमूने हमें, सर्वप्रथम, नामदेव के उपलब्ध पदों में मिलते हैं और उसके अनन्तर, कबीर साहब एवम् रैदास व नानकदेव प्रभृति निगु रंगो पासक संतों की रचनाओं में हम इसे, बहुत कुछ, प्रचुर मात्रा में भी पाने लगते हैं। हिन्दी-साहित्य के अन्तर्गत इसे सगुरग रूप के साथ प्रविष्ट कराने में सब से प्रबल हाथ प्रसिद्ध स्वामी रामानन्द एवम् महाप्रभु बल्लभाचार्य का रहा जिनके अपूर्व प्रभाव में आकर इसके भीतर भक्तिभाव की एक अनोखी सरिता उमड़ चली और मीराँबाई के समय तक हिन्दी के प्रायः सारे क्षेत्र को पूर्ण रूप से आप्रावित कर दिया। पूर्व के बंगाल प्रान्त में उसी समय श्री चैतन्यदेव का भी उदय हुआ था और उनका प्रभाव भी, एक ओर उत्काल प्रान्त से लेकर दूसरी ओर ब्रजमंडल तक, फैल रहा था तथा उसी प्रकार पश्चिम की ओर गुजरात में भक्त नरसी के भी पद प्रचलित हो रहे थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सं0 1526-1596 वि0 = सन् 1469-1539 ई0
- ↑ सं0 1542-1590 वि0= सन् 1485-1533 ई0
- ↑ सं0 1536-1587 वि0=सन्1479-1530 ई
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