मीराँबाई की पदावली पृ. 3

मीराँबाई की पदावली

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विषय प्रवेश

तदनुसार कबीर साहब, रैदास व नानक देव की रचनाओं में हमें प्रेमानुबंध की इस धारा का हो बहुत कुछ प्रभाव दीख पड़ता है और कुतबन, मंखन व जायसी के समय तक इसके आदर्शो पर लिखी गयी कतिपय प्रेम गाथाओं तक का पता चलने लगता है। हिन्दी-साहित्य के अन्तर्गत उक्त तीसरी अर्थात् भक्तिभाव की धारा का प्रवाह कुछ पीछे जाकर लक्षित हुआ। भक्तिभाव का प्रारम्भ, वास्तव में, सब से उत्तरी भारत में ही हुआ था, किन्तु परिस्थितियों के प्रति भक्तिभाव कूल पड़ने पर उसे, कुछ काल के लिए, दक्षिण भारत के आलवारों व आचार्यो के यहाँ आश्रय ग्रहण करना पड़ा और विक्रम की चौदहवीं शताब्दी के लगभग वह पहले-पहल वहाँ से और भी प्रबल होकर अपने मूल स्त्रोत की ओर वापस आया। हिन्दी के प्रारम्भिक ‘दूहों’ में हमें धर्म व नीति की थोड़ी बहुत मात्रा अवश्य दीख पड़ती है, किन्तु भक्ति भाव के उदाहरणों का उनमें प्रायः सर्वथा अभाव है। इस विचार-धारा वाली हिन्दी कविता के नमूने हमें, सर्वप्रथम, नामदेव के उपलब्ध पदों में मिलते हैं और उसके अनन्तर, कबीर साहब एवम् रैदास व नानकदेव प्रभृति निगु रंगो पासक संतों की रचनाओं में हम इसे, बहुत कुछ, प्रचुर मात्रा में भी पाने लगते हैं। हिन्दी-साहित्य के अन्तर्गत इसे सगुरग रूप के साथ प्रविष्ट कराने में सब से प्रबल हाथ प्रसिद्ध स्वामी रामानन्द एवम् महाप्रभु बल्लभाचार्य का रहा जिनके अपूर्व प्रभाव में आकर इसके भीतर भक्तिभाव की एक अनोखी सरिता उमड़ चली और मीराँबाई के समय तक हिन्दी के प्रायः सारे क्षेत्र को पूर्ण रूप से आप्रावित कर दिया। पूर्व के बंगाल प्रान्त में उसी समय श्री चैतन्यदेव का भी उदय हुआ था और उनका प्रभाव भी, एक ओर उत्काल प्रान्त से लेकर दूसरी ओर ब्रजमंडल तक, फैल रहा था तथा उसी प्रकार पश्चिम की ओर गुजरात में भक्त नरसी के भी पद प्रचलित हो रहे थे।
अतएव, उत्तरी भारत में सर्वत्र प्रायः एक ही प्रकार का वातावरण उत्पत्र हो जाने से, भक्ति भाव की लहरों में एक बहुत बड़ी शक्ति का संचार हो आया और इसके फलस्वरूप सूरदास, हितहरिवंश, गदाधर भट, आदि भक्त कवि अपनी ब्रजभाषा की रचनाओं की ओर, विशेषकर इसी समय, प्रवृत्त हुए। मीराँबाई के आविर्भाव के समय दिल्ली में लोदी वंश के मुसल्मान शासन कर रहे थे और उनके अनन्तर बाबर ने वहाँ, बाहर से आकर, अपने मुगल वंश के राज्य की बुनियाद डाली, किन्तु दिल्ली अथवा परिस्थिति गुजरात व मालवा की ओर से यदा-कदा आक्रमणों के होते रहने पर भी, राजस्थान पर मुसलमानों का कोई स्थायी प्रभाव नहीं पड़ पाया। मीराँबाई के समय को जितना महत्त्व राजनीतिक दृष्टि से प्राप्त होगा। उससे कहीं अधिक उसे धार्मिक व साहित्यिक दृष्टियों से भी दिया जा सकता है। उत्तर की ओर पंजाब प्रान्त में, उनके जीवन-काल में ही, गुरु नानकदेव[1] ने अपने मत का प्रचार किया था पूर्व की ओर, बंगाल में, श्रीचैतन्यदैव[2] ने अपनी रागानुगा भक्ति का आदर्श रक्खा था तथा मध्य में, व्रजमंडल के आस-पास महाप्रभु बल्लभाचार्य [3]ने भी अपने पुष्टिमार्ग को प्रवत्तित किया था और उसी काल के अन्तर्गत, कृष्णा भक्ति एवम् सूफी परम्पराओं के हिन्दी कवियों ने भी अपनी अनेक अनमोल रचनायें प्रस्तुत की थी। ऐसे वातावरण में रहने वाली मीराँबाई की मनोवृति पर उक्त तीनो विचार-धाराओं का न्यूनाधिक प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था, किन्तु इनसे कम महत्त्वपूर्ण, उनके लिए, उनके जीवन की घटनाओं भी नहीं सिद्ध हुई। उत्तरी भारत के वायुमंडल ने राजस्थान को प्रभावित किया और प्रान्त की परिस्थिति एवम् दैनिक जीवन के परिवर्तनों ने, उनके व्यक्तित्व को एक विशेष रूप से संघटित कर, उसे उपलब्ध पदों की रचना के लिए, अपनी प्रेरणा प्रदान की।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सं0 1526-1596 वि0 = सन् 1469-1539 ई0
  2. सं0 1542-1590 वि0= सन् 1485-1533 ई0
  3. सं0 1536-1587 वि0=सन्1479-1530 ई

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