भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 47

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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11.भक्तिमार्ग

इसमें भक्ति के अनुशासन की तीव्रता की अपेक्षा आत्मसमर्पण की पूर्णता में वास्तविक धर्मनिष्ठा मानी गई है। हम स्वयं को अपने आत्म से रिक्त कर देते हैं और तब परमात्मा हम पर अधिकार कर लेता है। इस परमात्मा द्वारा अधिकार किए जाने के रास्ते में बाधाएं हमारे अपने गुण, अभिमान, ज्ञान हमारी सूक्ष्म मांगें और हमारी अचेतन मान्यताएं, और संस्कार हैं। हमें अपने-आप को सब इच्छाओं से रिक्त करना होगा। और परम सत्ता में विश्वास रखते हुए प्रतीक्षा करनी होगी। परमात्मा की व्यवस्था में ठीक जमने के लिए हमें अपने सब दावों को त्याग देना होगा।[1] भक्ति और प्रपत्ति के मध्य का अन्तर वानर-पद्धति (मर्कटकिशोर न्याय) और बिडाल-पद्धति (मार्जारकिशेर न्याय) के प्रतीको द्वारा स्पष्ट किया गया हैं। बन्दर का बच्चा अपनी मां से चिपट जाता है और इस प्रकार बचा रहता है। इसमें बच्चे की ओर से भी थोड़े-से प्रयत्न की आवश्यकता होती है। बिल्ली अपने बच्चे को मुंह में उठाकर ले जाती है; बच्चा अपनी सुरक्षा के लिए कुछ भी प्रयत्न नहीं करता। भक्ति में परमात्मा की दया किसी सीमा तक यत्न द्वारा प्राप्त की जाती है, प्रपत्ति में यह मुक्त रूप से प्रदान की जाती है। प्रपत्ति में इस बात का कोई विचार नहीं रहता कि व्यक्ति दया पाने का पात्र है या नहीं, या उसने कितनी सेवा की है।[2] इस दृष्टिकोण का समर्थन प्राचीनतर परम्परा में प्राप्त होता है, “जब यह परमात्मा स्वयं चुनता है, तभी यह उसके द्वारा प्राप्त किया जा सकता है और उसी को वह अपना रूप दिखाता है।”[3] अर्जुन को बताया जाता है कि उसके सम्मुख दिव्य रूप भगवान् की दया से ही प्रकट हुआ था।[4] फिर, यह कहा गया है कि ”मुझसे ही स्मृति और ज्ञान उत्पन्न होते हैं और उसका क्षय भी मुझसे ही होता है।”[5] शंकराचार्य ने भी इस बात को स्वीकार किया है कि केवल भगवान् ही हमें रक्षा करने वाला ज्ञान प्रदान कर सकता है।[6]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 18, 66
  2. प्रपत्ति के ये अंग हैः (1) सबके प्रति सद्भाव (आनुकूल्यस्य संकल्पः); (2) दुर्भाव का त्याग (प्रातिकूल्यस्य वर्जनम्); (3) यह विश्वास कि भगवान् रक्षा करेगा (रक्षिष्यतीति विश्वासः); (4) भगवान् को रक्षक-रूप में अंगीकार करना (गोप्तृत्ववरणम्); (5) नितान्त असहायता की भावना (कार्पण्यम्); (6) पूर्ण आत्म समर्पण (आत्मनिक्षेपः)। इनमें से अन्तिम को परम्परागत रूप से प्रपत्ति के तुल्य माना गया है, जो कि अन्त और लक्ष्य है, जो अंगी है, जबकि बाक़ी पांच घटक तत्त्व कया अंग हैं। इस वक्तव्य से तुलना कीजिएः षड्विधा शरणागतिः, जिसकी व्याख्या अष्टांग योग की समानता पर की गई है, जिसमें समाधि वास्तविक उद्देश्य है और बाक़ी सात केवल सहायक हैं।
  3. कठोपनिषद् 2, 23
  4. 11, 47
  5. 15, 15
  6. तदनुग्रहहेतुकेनैव च विज्ञानेन मोक्षसिद्धिर्भवितुमर्हति। ब्रह्मसूत्र पर शांकर भाष्य। अवधूत गीता का पहला श्लोक हैः ईश्वरानुग्रहादेव पुंसामद्वैतवासना। महद्भयपरित्राणाद् विप्राणामुपजायते॥

    “केवल परमात्मा की दया से ही ज्ञानवान् मनुष्यों में अद्वैत अनुभव के प्रति रुचि उत्पन्न होती है, जो महान् संकट से उनकी रक्षा करती है।” कुछ जगह दूसरी पंक्ति का पाठ इस प्रकार मिलता है-‘महाभयपरित्राणा द्वित्राणामुपजायते।’

संबंधित लेख

भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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