गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 77

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

प्रथम सर्ग
सामोद-दामोदर

अथ द्वितीय सन्दर्भ
2. गीतम्

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अमल-कमल-दललोचन! भव मोचन!
त्रिभुवन भवन-निधान!
जय जय देव हरे ॥5॥[1]

अनुवाद- हे देव! हे हरे! हे निर्मल कमलदल के समान विशाल नेत्रों वाले, भव-दु:ख मोचन करने वाले, त्रिभुवनरूपभवन के आधार स्वरूप, आपकी जय हो, जय हो ॥5॥

पद्यानुवाद
अमल कमल दल लोचन, भव-मोचन हे।
त्रिभुवन भवन निधान, जय जय देव हरे

बालबोधिनी- पाँचवें पद्य में श्रीकृष्ण के धीरोदात्त गुण को अभिव्यक्त कर रहे हैं। अमल-कमल-दललोचन अमले ये कमलदले ते इव लोचने यस्या सौ तथाविध: तत्र सम्बुद्धौ अर्थात्र जिनके नेत्र अमल कमल दल के समान निर्मल हैं। नेत्रयुगल सभी के तापों का प्रशमनकर चित्त, मन और प्राणों का हरण कर लेते हैं

तेरछे नेत्रन्त वाण विन्धे गोपीगण-प्राण।

भवमोचन, सभी भक्तों के संसार बन्धन का मोचन करते हैं, जीवों की रक्षा करते हैं। इस पद से भगवान का कारुण्य भी द्योतित हो रहा है। त्रिभुवन-भवन-निधान श्रीहरि त्रिलोक्यव्यापक हैं, वे त्रिलोक्यरूपी भवन के निधिस्वरूप हैं, कारण हैं, जनक हैं इस तरह आपमें विनयीत्व गुण का प्रकाश होता है। आपकी जय हो।

धीरोदात्त-गम्भीर, विनयी, क्षमाशील, करुण, सुहृदव्रती, अकथ्य कथनकारी, गुण गर्वीले तथा महान् सत्यपरायण आदि धीरोदात्त के गुण श्रीकृष्ण में विद्यमान हैं ॥5॥


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [सर्वतापोपशमनपूर्वकसर्वाभीष्टप्रदतया देवसहायक-रूपेण धीरोदात्तमाह] हे अमलकमलदललोचन; (प्रफुल्लपद्मपत्रे इवलोचने यस्य, हे तादृश) [एतेन तापशमकत्वम्] हे भवमोचन; (संसारक्लेशहर) [एतेन करुणत्वं] हे त्रिभुवन- भवननिधान (त्रिभुवनमेव भवनं गृहं तस्य निधानं निधिरिव अमूल्यरत्नमित्यर्थ:, तत्सम्बुद्धौ [एतेन विनयित्वम्] हे देव, हरे, जय जय। ["गम्भीरो विनयी क्षन्ता करुण: सुदृढ़व्रत:। अकत्थनो गूढ़गर्वो धीरोदात्त: सुसत्त्वभृत्"] ॥5॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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