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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
प्रथम सर्ग
सामोद-दामोदर
अथ द्वितीय सन्दर्भ
2. गीतम्
मधु-मुर-नरक-विनाशन! गरुड़ासन! अनुवाद- हे देव! हे हरे! हे मधुसूदन! हे मुरारे! हे नरकान्तकारी! हे गरुड़-वाहन! हे देवताओं के क्रीड़ा-विहार-निदान, आपकी जय हो! जय हो ॥4॥ पद्यानुवाद बालबोधिनी- मधु-मुर-नरक विनाशन श्रीकृष्ण के तीन लोक हैं, जहाँ वे नित्य-लीलाविलास करते हैं। गोकुल, मथुरा एवं द्वारका। इन धामों में लीलाविलास करते हुए श्रीकृष्ण में नायकत्व के छियानवे लक्षण दिग्दर्शित हुए हैं। प्रस्तुत स्तवनांश में उनका धीरोद्धत्तत्त्व प्रकाशित हो रहा है। श्रीकृष्ण ने द्वारकापुरी में रहते हुए मधुदैत्य एवं नरकासुर आदि का संहार किया है। इस भाव को मधु-मुर-नरक विनाशन पद से अभिव्यक्त किया है। गरुड़ासन ए-गरुड़ आसनं यस्य तत्सम्बुद्धौ यह गरुड़ासन पद का विग्रह है। पक्षिराज गरुड़ का पृष्ठ भगवान का आसन है। अत: भगवान को गरुड़ासन अथवा गरुड़वाहन कहा जाता है। सुरकुल- केलिनिदान असुरों का संहार करने भगवान देवताओं का आनन्दवर्द्धन किया करते हैं। वे भक्तजनों के साथ आनन्द विहार करते हैं। यहाँ श्रीकृष्ण का मायावित्व भी भासित हो रहा है। हे हरे! आपकी जय हो ॥4॥ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- हे मधु-मुर-नरकविनाशन! (मध्वादीनां विनाशकृत) गरुड़ासन! (गरुड़वाहन) सुरकुलकेलिनिदान! (सुराणां कुलं तस्य केलि: सच्छन्दविहार: तस्य निदान कारण); [असुराणां निधनेन तेषामकुतोभयत्वादिति भाव:]; [एतेन मायावित्वादि चतुष्टयमुक्तं भवति] हे देव, हरे, जय जय ॥4॥
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