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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
द्वादश: सर्ग:
सुप्रीत-पीताम्बर:
चतुर्विंश: सन्दर्भ:
24. गीतम्
ग्रन्थकार कहते हैं- हे माध्वीक! अंगूर से बनी मदिरा! तुम्हारी क्या चिन्ता करें, तुम्हारी मधुरता व्यर्थ है। सज्जनों के लिए तुम्हारी मादकता किस काम की? हे शर्करे! तुम मीठी हो तो क्या हुआ, कितनी कर्कशा हो, क्या तुम गवेषणा के योग्य हो, तुममें तो सार ही नहीं है, हे द्राक्षे! तुम डरो मत, तुम्हारी ओर क्या कोई रसिकजन कभी देख सकता है? हे अमृत! तुम्हें तो गर्व ही नहीं करना चाहिए, तुम तो मरे हुए ही हो, हे क्षीर रस (दूध) मैं रस हूँ, यह जानकर गर्व मत करो, क्योंकि तुम्हारा रस तो नीर ही है। हे माकन्द पके हुए रस फल, तुम्हें तो रोना ही है, रसिकजन तुम्हारा जरा भी चिन्तन नहीं करेंगे। हे कामिनी के अधर! तुम्हारा भी कोई स्थान नहीं है, तुम तो असुरों के निवास स्थान पाताल में चले जाओ। काव्य रस के रसिकों को इसमें माधुर्य प्रतीत नहीं होता। प्रस्तुत श्लोक में स्त्रग्धरा छंद, आरमयी वृत्ति, वैदर्भी रीति और गुणकीर्तन नाम का नाट्यालंकार है। इस ग्रन्थ के आदि मध्य और अन्त में मंगल ही मंगल है। अत: यहाँ शुभ शब्द का उपादान है। तिरस्कृतोपदालंकार है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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