गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 492

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

द्वादश: सर्ग:
सुप्रीत-पीताम्बर:

चतुर्विंश: सन्दर्भ:

24. गीतम्

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रामकरीरागयतितालाभ्यां गीयते।
कुरु यदुनन्दन! चन्दनशिशिरतरेण करेण पयोधरे।
मृगमद-पत्रकमत्र मनोभवमंगलकलशसहोदरे ॥1॥
निजगाद सा यदुनन्दने क्रीड़ति हृदयानन्दने ॥ध्रुवपदम॥[1]

अनुवाद- हृदय को आनन्द प्रदान करने वाले यदुनन्दन के साथ क्रीड़ा करती हुई श्रीराधा ने कहा हे यदुनन्दन! चन्दन से भी अति शीतल अपने हाथों से मनोभव के मंगल-कलश के समान मेरे पयोधरों पर मृगमद से पत्रक-रचना कीजिए।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- हृदयानन्दने (हृदयमानन्दयति स्वचापल्येन क्रीड़नाय उन्मुखं करोतीति हृदयानन्दन: तस्मिन् चित्ताह्लादके) यदुनन्दने (श्रीकृष्णे) क्रीड़ति (विलसति सति) [सुरतान्तेऽपि चिक्रीड़िषोदयात् अखण्डलीलात्वमुक्तम्] सा [राधा] [तं प्रति] निजगाद [क्रीड़नसमयेऽपि प्रियप्रेरणात् नित्यस्वाधीनभर्त्तृकात्वे प्राधान्यं द्योतितम]। अयि यदुनन्दन (महाकुलोर्वत्वेन सर्वातिशायि-नामक-गुण-ख्यापनाय सम्बोधनमिदं) [यदि पुनर्मनोभव-मखारम्भ: सम्भवति तदा] [चन्दनादपि] शिशिरतरेण; [शीतलत्वेन अव्यग्रतया करणयोग्यता सूचिता) [तव] करेण अत्र मनोभव-मंगल-कलस- सहोदरे (मनोभवस्य कामस्य य: मंगलकलस: तस्य सहोदरे तत्सदृशे मंगलकलसोऽपि यथाविधानेन स्थाप्यते, अतस्त्वमपि तथा कुरु इत्यर्थ:) [मम] पयोधरे (स्तने) मृगमद-पत्रकं (कस्तूरिका-पत्रवलीं) कुरु (रचय) ॥1॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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