गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 491

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

द्वादश: सर्ग:
सुप्रीत-पीताम्बर:

त्रयोविंश: सन्दर्भ:

23. गीतम्

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पद्यानुवाद
सरस सुरति के अन्त, अंग से छिन्न भिन्न हो बाला-
हरि से बोल उठी आँखों में भर कर मद की हाला-
हे यदुनन्दन! हृदयानन्दन! इतनी अनुनय मेरी
पूर्ण करो हे असुरनिकन्दन! (लगा रहे क्यों देरी?)

बालबोधिनी- अनन्तर दोनों के परस्पर आनन्द एवं सन्दोहरूप सुरत के अवसान पर श्रीराधा गोविन्द को प्रोत्साहित करते हुए कहने लगीं। सम्भोग के अवसान पर श्रीराधा के अंग अतिशय रूप से थक गये थे। श्रीराधा ने अपने कान्त श्रीगोविन्द को आनन्दमय देखा और कहा।

जब स्वामी प्रीतिपरायण हो तब ही अपनी बात कहना साफल्यपूर्ण होता है- यह नीति है। अत: श्रीराधा सस्मित गोविन्द से जो कहने लगीं, उसका वर्णन इस काव्य के अगले प्रबन्ध में किया जा रहा है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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