गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 479

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

द्वादश: सर्ग:
सुप्रीत-पीताम्बर:

त्रयोविंश: सन्दर्भ:

23. गीतम्

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दोर्भ्यां संयमित: पयोधर-भरेणापीडित: पाणिजै
राविद्धो दशनै: क्षताधरपुट: श्रोणीतटेनाहत:।
हस्तेनानमित: कचेऽधरसुधापानेन सम्मोहित:
कान्त: कामपि तृप्तिमाप तदहो कामस्य वामा गति: ॥2॥[1]

अनुवाद- राधिका की बाहों से बँधे, पयोधर-भार से दबे, पाणिज अर्थात नखों से बिद्ध किये गये, दन्तों से क्षत किये गये अधर वाले, कटि-तट (नितम्ब) से आहत, हाथों से केश पकड़कर नमित किये गये, अधर-मधु-धारा से सम्मोहित प्रिय कान्त श्रीकृष्ण किसी लोकोत्तर आनन्द को प्राप्त हुए। इस प्रकार कामदेव की गति को अति कुटिल कहा गया है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [न केवलं प्रत्यूह एव बन्धनादिकमपि क्रीड़ारम्भको वभूवेत्याह]- कान्त: (श्रीकृष्ण:) दोर्भ्यां (भूजाभ्यां) संयमित: (नियन्त्रित:) पयोधरभरेण (पयोधरयो: स्तनयो: भरेण) आपीड़ित: (नितरां पीड़ित:) पाणिजै: (नखै:) आविद्ध:) विक्षत:) दशनै: (दन्तै:) क्षताधरपुट: (क्षतम अधरपुटं यस्य तादृश:) श्रोणीतटेन (नितम्बदेशेन) आहत: (नितरां ताड़ित:) हस्तेन कचे (केशे) आनमित: (वक्रीकृत:) अधर-मधुस्यन्देन (अधरसुधा-क्षरणेन अधरामृतदानेनेत्यर्थ:) सम्मोहित: (सम्यक् मोहं प्राप्त:) [सन्] कामपि (अनिर्वाच्यां) तृप्तिं आप (प्राप्तवान्); अहो (आश्चर्यम) तत् (तस्मात्) कामस्य गति: (स्वरूपं) वामा (विचित्र)। [कान्तया संयमनादिभि: परिभूतोऽपि कान्त: कामपि अनिर्वचनीयां तृप्तिं प्राप्तस्तदतीवाद्भूतमेवेति भाव:] ॥2॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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