गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 478

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

द्वादश: सर्ग:
सुप्रीत-पीताम्बर:

त्रयोविंश: सन्दर्भ:

23. गीतम्

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पद्यानुवाद
अति क्रीड़ा-बाधित आलिंगन।
मन्द वार्ता-वारित चुम्बन॥
नयन नमित, वञ्चित मुख दर्शन।
सुख अति, विस्मृत रति-लीला गुन॥ 
उमग रही राधा तन-मन में।
विलस रही मृदु सुमन-शयनमें॥

बालबोधिनी- प्रस्तुत श्लोक में कवि जयदेव वर्णन करते हैं कि अब श्रीराधा और श्रीमाधव में चिरकाल से आकांक्षित उनका अतिशय प्रिय सुरत प्रारम्भ हुआ। उस रतिक्रीड़ा के आरम्भ में पुलकावली के प्रस्फुरण से ही बाधा उत्पन्न होती है। आलिंगन के आरम्भ में सात्त्विक रोमाञ्च का होना युक्तिसंगत ही है। रोमाञ्च से पूर्णालिंगन में बाधा होना स्वाभाविक ही है। काम-क्रीड़ा के लिए विलोकन-अवलोकन करने पर पलकों का गिरना भी बाधा प्रतीत हुई। अभिप्राय विशेष से देखने के कारण पलकों का गिरना भी असहनीय होने लगा। अधर-सुधा पान करते समय काम-कथाएँ कहना भी अन्तराय प्रतीत हुआ। अधरपान में प्रियालाप भी सहनीय नहीं होता है। रति-प्रियालाप से अतिशय रुचिर अधरपान लगता है। काम-कलाओं से पूर्ण युद्ध में आनन्द की प्राप्ति भी बाधा ही प्रतीत हुई।

प्रस्तुत श्लोक में शार्दूलविक्रीड़ित छन्द है, यथासंख्य अलंकार है, संभोग नाम का श्रृंगार रस है, प्रस्तुत श्लोक की भूमिका चन्द्रहास नामक चौबीसवें प्रबन्ध की है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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