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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
द्वादश: सर्ग:
सुप्रीत-पीताम्बर:
त्रयोविंश: सन्दर्भ:
23. गीतम्
पद्यानुवाद बालबोधिनी- हे चन्द्रानने! तुम तो अमृत निस्पन्दन चन्द्रमा ही तो हो। अपनी मणि की करधनी को अपने कण्ठ-स्वर के साथ इस प्रकार मुखरित करो कि विपरीतरति-काल में वे तुम्हारे कण्ठ-स्वर के साथ ताल देने लगें। मेरे श्रोत्र-युगल जो कोयल की कूक सुन-सुनकर खिन्न हो रहे थे, उस उद्दीपन से अतृप्त हो रहे थे, उनमें संगीत समा जाने दो और चिरकाल से सञ्चित इस विरह के अवसाद को शमित कर दो। पिक-रव विरहियों के लिए दु:श्रव होता ही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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