गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 473

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

द्वादश: सर्ग:
सुप्रीत-पीताम्बर:

त्रयोविंश: सन्दर्भ:

23. गीतम्

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पद्यानुवाद
मधु? ककिणि-मवनिसे पूरित हों युगल कान ये मेरे।
पिक-रव से पीड़ित थे जो अति विरह-समय में तेरे॥

बालबोधिनी- हे चन्द्रानने! तुम तो अमृत निस्पन्दन चन्द्रमा ही तो हो। अपनी मणि की करधनी को अपने कण्ठ-स्वर के साथ इस प्रकार मुखरित करो कि विपरीतरति-काल में वे तुम्हारे कण्ठ-स्वर के साथ ताल देने लगें। मेरे श्रोत्र-युगल जो कोयल की कूक सुन-सुनकर खिन्न हो रहे थे, उस उद्दीपन से अतृप्त हो रहे थे, उनमें संगीत समा जाने दो और चिरकाल से सञ्चित इस विरह के अवसाद को शमित कर दो। पिक-रव विरहियों के लिए दु:श्रव होता ही है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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