गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 472

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

द्वादश: सर्ग:
सुप्रीत-पीताम्बर:

त्रयोविंश: सन्दर्भ:

23. गीतम्

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शशिमुखि! मुखरय मणिरशनागुणमनुगुणकण्ठनिनादम्।
श्रुति-युगले पिकरुतविकले पुर शमय चिरादवसादम्॥
क्षणमधुना.... ॥6॥[1]

अनुवाद- हे विधुमुखी! अपनी करधनी की मणियों को मुखरित करो, उसी के समान अपना कण्ठ निनाद करो। इस प्रकार की कोकिल-ध्वनि से चिरकाल से अवसादित मेरे श्रुतियुगल को शमित करो।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय-[मौनेन तत्सम्मतिमालक्ष्य लोभादन्यदपि प्रार्थयते]- अयि शशिमुखि (चन्द्रानने) अनुगुणकण्ठनिनादम् (अनुगुण: सदृश: कण्ठस्य निनाद: ध्वनि यस्य तादृशं, तव कण्ठस्वरतुल्यं) मणिरसनागुणं (रत्नमय काञ्चीदामं) मुखरय (मुखरीकुरु; प्रार्थना-विशेषोऽयं) पिकरुत-विकले (पिकानां कोकिलानां रुतेन रवेण विकले व्याकुले विरहस्योद्दीपकत्वादिति भाव:) श्रुति-पुटयुगले (कर्णद्वये); चिरात् (चिरकालीनमित्यर्थ:) अवसादं (अवसन्नातां) शमय (नाशय) ॥6॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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