गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 467

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

द्वादश: सर्ग:
सुप्रीत-पीताम्बर:

त्रयोविंश: सन्दर्भ:

23. गीतम्

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पद्यानुवाद
उर-दुकूल कर दूर कुचों की आलिंगन-आतुरता।
अन्त करो भुज-पाश समाकर देवि! अखिल व्याकुलता॥
विरह-अनल से दग्मा देह यह नष्ट हुए सब सपने।
अधर-सुधा-रस से जीवन दो इस अनुचरको अपने॥

बालबोधिनी- हे राधे! अपने मुख से रति उत्पन्न करने वाले मनोहारी अनुकूल वचन कहिए। तुम्हारा मुख चन्द्रमा के समान है। जिस प्रकार चन्द्रमा से अमृत नि:सृत होता है, उसी प्रकार तुम भी अपने मुखेन्दु से सुधा-धारा वर्षण करो। सुरत-क्रीड़ा अनुकूल मीठी-मीठी बातें बोलो। मैं तुम्हारे विरह से तापित हूँ, परस्पर उपमान-उपमेय भाव से कहते हैं कि दुकूल के समान विरह को हटाता हूँ, विरह के समान दुकूल को हटाता हूँ। जैसे विरह हम दोनों के मिलन में बाधक बनता है, उसी प्रकार से यह तुम्हारे वक्ष:स्थल पर विद्यमान दुकूल भी हम दोनों के मिलन में बाधक है। अत: इस बाधक या अवरोधक को हटाने की मुझे अनुमति दो। यह दुकूल पयोधरों का रोधक है। विरह में कामिनियों के पयोधरों की वृद्धि नहीं होती, उसी प्रकार वस्त्र से आवृत पयोधरों की भी वृद्धि नहीं होती। अत: तुम्हारे स्तनों के विकास को रोकने वाले विरह रूप आवरण को मैं हटा देता हूँ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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