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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
द्वादश: सर्ग:
सुप्रीत-पीताम्बर:
त्रयोविंश: सन्दर्भ:
23. गीतम्
पद्यानुवाद बालबोधिनी- हे राधे! अपने मुख से रति उत्पन्न करने वाले मनोहारी अनुकूल वचन कहिए। तुम्हारा मुख चन्द्रमा के समान है। जिस प्रकार चन्द्रमा से अमृत नि:सृत होता है, उसी प्रकार तुम भी अपने मुखेन्दु से सुधा-धारा वर्षण करो। सुरत-क्रीड़ा अनुकूल मीठी-मीठी बातें बोलो। मैं तुम्हारे विरह से तापित हूँ, परस्पर उपमान-उपमेय भाव से कहते हैं कि दुकूल के समान विरह को हटाता हूँ, विरह के समान दुकूल को हटाता हूँ। जैसे विरह हम दोनों के मिलन में बाधक बनता है, उसी प्रकार से यह तुम्हारे वक्ष:स्थल पर विद्यमान दुकूल भी हम दोनों के मिलन में बाधक है। अत: इस बाधक या अवरोधक को हटाने की मुझे अनुमति दो। यह दुकूल पयोधरों का रोधक है। विरह में कामिनियों के पयोधरों की वृद्धि नहीं होती, उसी प्रकार वस्त्र से आवृत पयोधरों की भी वृद्धि नहीं होती। अत: तुम्हारे स्तनों के विकास को रोकने वाले विरह रूप आवरण को मैं हटा देता हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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