गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 466

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

द्वादश: सर्ग:
सुप्रीत-पीताम्बर:

त्रयोविंश: सन्दर्भ:

23. गीतम्

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वदन-सुधानिधि-गलितममृतमिव रचय वचनमनुकूलम्।
विरहमिवापनयामि पयोधर-रोधकमुरसि दुकूलम्॥
क्षणमधुना.... ॥3॥[1]

अनुवाद- हे राधे! अपने मुखसुधानिधि से अमृततुल्य अनुकूल वचन कहिये। मिलन में बाधक स्वरूप विरह के समान तुम्हारे पयोधर-स्थल पर स्थित वस्त्र को मैं हटाना चाहता हूँ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [अनुज्ञां बिना पूजा न शुभावहा इति अनुज्ञां प्रार्थयते]- अयि प्रेयसि] वदन-सुधानिधि-गलितम (वदनमेव सुधानिधि: चन्द्र: तस्मात् गलितम नि:सृतम्) अमृतम् इव अनुकूलं (अनुरागात्मकं) [अनुकूलमेव वचनम् अमृतवद्भवतीति भाव:] वचनं रचय (वद); [ननु किमेतावता तवेप्सितं सेत्स्यतीत्याह] [अहं च] पयोधर-रोधकं (स्तनावरकं, स्तनाश्लेष- वाधकमित्यर्थ:) दुकूलम (वसनम) उरसि (वक्षसि; अत्र पञ्चम्यर्थे सप्तमी) विरहमिव अपनयामि (अपसारयामि) यथा विरहेण पयोधरदर्शनं विच्छिद्यते दुकूलेन; अतस्तत् दूरीकृत्य विरहव्यथामपि निवारयामि ॥3॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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