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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
द्वादश: सर्ग:
सुप्रीत-पीताम्बर:
त्रयोविंश: सन्दर्भ:
23. गीतम्
पद्यानुवाद बालबोधिनी- श्रीहरि श्रीराधा से कहने लगे हे कामिनि! अपने चरण-कमल इस पल्लव की सेज पर स्थापित करो। ये पल्लव तुम्हारे पद-पल्लवों से वैर रखते हैं। अपने पैरों से इन्हें प्रताड़ित करो, जिससे ये अपनी हार को अनुभूत कर लें। शत्रु अपने शत्रु को पराजित कर उसे अपने पैरों से रोंद ही तो डालता है। हे प्रिये! अब तुम मेरा अनुसरण करो, तुम्हारे दर्शनोत्सव से मैं अत्यधिक आनन्दित हो रहा हूँ। अब क्षण भर तुम्हारे साथ सम्भोगोत्सव से मुझे आनन्दित होने दो। अब ऐसा पल आ गया है कि तुम अपने अनुगत नारायण के साथ विलसो। रस-सृष्टि की भूमिका बनाते हुए श्रीकृष्ण कहने लगे मैं नारायण हूँ। इस प्रसंग में नारायण का अभिप्राय यह है कि जो नार अर्थात जल में निवास करता है, जो जनों के आश्रय-स्वरूप हैं। जिस प्रकार कोई सन्तप्त व्यक्ति जलाशय में जल-क्रीड़ा कर आनन्द की अनुभूति करता है, उसी प्रकार तुम भी कामसंतप्ता हो, मेरे प्रेम-सागर में जलक्रीड़ा के समान रतिकेलि का अनुभव कर आनन्द प्राप्त करो और मेरी भी शीतलता का विधान करो। प्रस्तुत श्लोक में तल्प पर 'पदपल्लवन्यास' पद से करणविशेष सूचित हुआ है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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