गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 464

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

द्वादश: सर्ग:
सुप्रीत-पीताम्बर:

त्रयोविंश: सन्दर्भ:

23. गीतम्

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पद्यानुवाद
मानिनि! अपना मान बिसारो।
नव किसलय-शैया पर सुन्दरि! पद-पद्मों को धारो।
और अरुणिमा से पल्लव के अहंभाव को मारो॥

बालबोधिनी- श्रीहरि श्रीराधा से कहने लगे हे कामिनि! अपने चरण-कमल इस पल्लव की सेज पर स्थापित करो। ये पल्लव तुम्हारे पद-पल्लवों से वैर रखते हैं। अपने पैरों से इन्हें प्रताड़ित करो, जिससे ये अपनी हार को अनुभूत कर लें। शत्रु अपने शत्रु को पराजित कर उसे अपने पैरों से रोंद ही तो डालता है। हे प्रिये! अब तुम मेरा अनुसरण करो, तुम्हारे दर्शनोत्सव से मैं अत्यधिक आनन्दित हो रहा हूँ। अब क्षण भर तुम्हारे साथ सम्भोगोत्सव से मुझे आनन्दित होने दो। अब ऐसा पल आ गया है कि तुम अपने अनुगत नारायण के साथ विलसो। रस-सृष्टि की भूमिका बनाते हुए श्रीकृष्ण कहने लगे मैं नारायण हूँ। इस प्रसंग में नारायण का अभिप्राय यह है कि जो नार अर्थात जल में निवास करता है, जो जनों के आश्रय-स्वरूप हैं। जिस प्रकार कोई सन्तप्त व्यक्ति जलाशय में जल-क्रीड़ा कर आनन्द की अनुभूति करता है, उसी प्रकार तुम भी कामसंतप्ता हो, मेरे प्रेम-सागर में जलक्रीड़ा के समान रतिकेलि का अनुभव कर आनन्द प्राप्त करो और मेरी भी शीतलता का विधान करो।

प्रस्तुत श्लोक में तल्प पर 'पदपल्लवन्यास' पद से करणविशेष सूचित हुआ है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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