गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 430

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

एकादश: सर्ग:
सामोद-दामोदर:

एकविंश: सन्दर्भ:

21. गीतम्

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वितत-बहु-वल्लि-नव-पल्लव-घने
विलस चिरमलस-पीनजघने!
प्रविश.... ॥5॥[1]

अनुवाद- पीन जघन गुरु भार से सुमन्द अलस गति का सम्पादन करने वाली श्रीराधे! सुविस्तृत लताओं के नवीन पल्लवों के द्वारा निविड़तर रूप से आच्छादित इस लता-केलि निभृत निकुंज में प्रवेश करो और माधव के समीप जाकर उनके साथ विलास करो।

पद्यानुवाद
बहुवल्ली पल्लव नव छादित,
विलस अरी चिर कुंज रमण में।
चल राधा! पिय-ठिग उपवन में॥

बालबोधिनी- सखी कहती है- राधे! तुम्हारी जाँघें आलस्ययुक्त एवं स्थूल हैं और यह निकुंज भी अति विस्तृत विविध लताओं से एवं पल्लवों से रचित है, इन लताओं से और भी नये-नये पल्लव प्रस्फुटित हुए हैं जिनसे यह लतानिकुञ्ज और भी अधिक घना हो गया है। अत: इस कोमल-पत्र-कुंज में अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के साथ चिरकाल पर्यन्त विलास करती रहो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- अयि अलस-पीन-जघने (अलसञ्च पीनञ्च जघनं यस्या: तादृशि) राधे वितत-बहु-वल्लि-नव-पल्लव-घने (विततानां विस्तृतानां बहुवल्लीनां नवै: पल्लवै: घने निविड़े) इह (केलिसदने) माधवसमीपं प्रविश [ततश्च] चिरं विलस [ईदृग्जघनं सफलं कुरु इत्यर्थ:] ॥5॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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