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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
एकादश: सर्ग:
सामोद-दामोदर:
एकविंश: सन्दर्भ:
21. गीतम्
मधु-मुदित-मधुपकुल-कलित-रावे। अनुवाद- मदन-रस से सरस अनुरागमयी राधे! मधुपान में प्रमत्त भ्रमरों के कलनाद से निनादित निकुञ्ज-गृह में प्रवेश करो और माधव के समीप जाकर उनके साथ विलास करो। पद्यानुवाद बालबोधिनी- सखी कहती है- हे राधे! कामदेव के उद्वेग से उत्पन्न श्रृंगार-रस में तुम भावमयी हो गयी हो। वसन्त में परम आनन्द पाने वाले, पुष्परस के आस्वादन से आनन्दपूर्वक गुंजार करने वाले मधुमत्त भौंरो के झुण्ड वाले लताभवन में प्रवेश कर प्रेमरस का आस्वादन करो। यह एक बहुत बड़े आनन्द की भूमिका है, प्रणय-मिलन का मंगल मुखरण है- चलो, इसमें प्रवेश करो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- अयि मदन-रस-सरस-भावे (मदनरसेन श्रृंगाररसेन सरसभाव: सारस्यं यस्या: अयि तादृशि) [ईदृगविधायास्ते तन्निकटप्रवेश एव योग्य:] राधे मधुमुदित-मधुप-कुल-कलित-रावे (मधुना मकरन्देन मुदितं मत्तं मधुपकुलं भ्रमरवृन्दं तेन कलित: विहित: राव: गुञ्जनं यत्र तस्मिन्) इह (केलिसदने) माधवसमीपं प्रविश ततश्च विलस ॥6॥
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