गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 422

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

एकादश: सर्ग:
सामोद-दामोदर:

विंश: सन्दर्भ:

20. गीतम्

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हारावली-तरल-काञ्चन-काञ्चि-दाम
मञ्जीर-ककंण-मणि-द्युति-दीपितस्य।
द्वारे निकुञ्ज-निलयस्य हरिं विलोक्य
व्रीडावतीमथ सखीमियमित्युवाच ॥4॥[1]

अनुवाद- हारों के मध्य में विराजित धुकधुकि (मणि) से सुवर्णमयी काञ्ची (करधनी) से कुण्डलों तथा कंकणों में संलग्न मणियों की कान्ति से निकुञ्जवन समुद्भासित हो गया, वहाँ केलिगृह द्वार पर विद्यमान श्रीहरि को देखकर श्रीराधा लज्जावती हो गईं, तभी सखी श्रीराधा से कहने लगी-

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- अथ इयं (सखी) हारावली-तरल-काञ्चन-काञ्चिदाम-मञ्जीर-कंकण-मणिद्युति-दीपितस्य (हारावल्या: तरलानां मध्यगानां मणीनां) (धुक्धुकी इति भाषा) तथा काञ्चन-काञ्चिदाम्नो: मञ्जीरयो: कञ्चणयोश्च मणीनां राधा-परिहितानामिति शेष: द्युतिभि: किरणै: दीपितस्य (प्रोज्ज्वलीकृतस्य) निकुञ्ज-निलयस्य (लतागृहस्य) द्वारे [अत्युत्सुकं] हरिं विलोक्य ब्रीड़ावतीं (रन्तु मुद्यतामपि लज्जया तत्पार्श्वमभजमानां) सखीम् (राधाम्) इति (वक्ष्यमाणं वचनं) निजगाद ॥4॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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