गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 42

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

प्रथम सर्ग
सामोद-दामोदर

अथ प्रथम सन्दर्भ
अष्टपदी
1. गीतम्

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क्षितिरतिविपुलतरे तिष्ठति तव पृष्ठे
धरणि-धरणकिण-चक्रगरिष्ठे ।
केशव धृत-कूर्मशरीर
जय जगदीश हरे ॥2॥[1]

अनुवाद - हे केशिनिसूदन! हे जगदीश! हे हरे! आपने कूर्मरूप अंगीकार कर अपने विशाल पृष्ठ के एक प्रान्त में पृथ्वी को धारण किया है, जिससे आपकी पीठ व्रण के चिह्नों से गौरवान्वित हो रही है। आपकी जय हो ॥2॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. [[अन्वय - हे केशव! हे धृतकच्छपरूप! (स्वीकृत-कच्छप -विग्रह) क्षिति: (मेदिनी) धरणि-धरण-किणचक्र-गरिष्ठे (धरण्या: धरणेन बहनेन यत् किणचक्रं कठिनी-भूतत्त्वक्रसमूह:) तेन गरिष्ठे सुदृढ़े विपुलतरे (अतिविशाले) तव पृष्ठे तिष्ठति; हे जगदीश, हे हरे, त्वं जय (सर्वोत्कर्षेण वर्त्तस्व) ॥2॥]]

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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