गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 43

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

प्रथम सर्ग
सामोद-दामोदर

अथ प्रथम सन्दर्भ
अष्टपदी
1. गीतम्

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पद्यानुवाद-

राजित पृष्ठे निज क्षिति विपुला,
धरणी धरण-किण अकिंत बहुला,
केशव कच्छप रूप लसे, जय जगदीश हरे ॥2॥

बालबोधिनी - अष्टपदी के द्वितीय श्लोक में श्रीभगवान के कच्छपावतार का वर्णन किया है। आपने इस पृथ्वी (मन्दराचल) को मात्र आकर्षित ही नहीं किया अपितु अपनी पीठ पर धारण करते हुए स्थापन किया है। कच्छपावतार धारण करके श्रीभगवान पृथ्वी के नीचे विद्यमान हैं और पृथ्वी की अपेक्षा अत्यधिक विशाल उनके पृष्ठ पर यह भूमण्डल एक गेंद की भाँति अवस्थित है।

पृथ्वी के धारण करने से उनके पृष्ठ पर घाव-चिह्न जाल-सा बन गया है। यह व्रण-चिह्न-जाल आपका अलंकार ही है। आपकी जय हो।

जय जगदीश हरे! मुखबन्ध की भाँति यह सम्पुट सम्पूर्ण अष्टपदी से संयोजित है ॥2॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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