गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 416

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

एकादश: सर्ग:
सामोद-दामोदर:

विंश: सन्दर्भ:

20. गीतम्

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पद्यानुवाद
स्थिरतम पुंजे वेतस कुंजे चिन्तातुर हरि राधे।
"वह देखेगी मुझे कहेगी स्मरवणी भुज बाँधे॥
चाहेगी क्रीड़ारत होगी" कह यों भ्रम में भूले।
तुझे देखते कँपते-हँसते रोते गिर हिय हूले॥

बालबोधिनी- सखी कह रही है- राधे! श्रीहरि सघन अंधकार में बैठे हुए हैं। उस निकुंज में अति विचित्र राग-अनुरागमय क्रिया-कलाप कर रहे हैं। उमड़-उमड़ कर श्रृंगारिक चेष्टाएँ कर रहे हैं। उस लताकुंज में अति चिन्ताकुल होकर सोच रहे हैं। सोच-सोचकर विलस रहे हैं- राधा मुझे देखेगी। मेरे साथ मधुर-मदिर उन्मादमयी रसीली बातें करेगी। मेरे अंग-अंग का आलिंगन कर प्रसन्न हो जायेगी। तदनन्तर मेरे साथ रतिक्रीड़ा हेतु उद्यत होगी। इस प्रकार अनेकों मनोरथों से उल्लसित होकर हुलस रहे हैं।

श्रीकृष्ण आपको ध्यान में देखते हैं। आपका अवलोकन कर सिहर उठते हैं, पुलकायमान हो जाते हैं। स्वप्निल समागम रस मुख की अनुभूति करने लगते हैं। रतिकेलि क्रम विकास में उमगते हुए स्वेदपूर्ण हो जाते हैं। भाव-स्वप्न में तुमको देखकर उठ खड़े होते हैं और यथार्थ में तुम्हें न देखकर मूर्च्छित हो जाते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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