गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 39

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

प्रथम सर्ग
सामोद-दामोदर

अथ प्रथम सन्दर्भ
अष्टपदी
1. गीतम्

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पद्यानुवाद
जय जगदीश हरे!
प्रलय-जलधिसे नौ सम न्यारे
वेद उबारे, हास्य-सँवारे।
केशव मत्स्य स्वरूप लसे, जय जगदीश हरे ॥1॥

बालबोधिनी - श्रीराधामाधव की लीलामाधुरी की सर्वोत्कर्षता का वर्णन करना ही कवि जयदेव को अभिप्रेत है। वे ग्रन्थ के आरम्भ में 'प्रलयपयोधिजले' श्लोक से लेकर इस अष्टपदी के अन्त तक समस्त अवतारों के मूल आश्रय-स्वरूप अखिल नायक शिरोमणि श्रीकृष्ण के मत्स्यादि अवतारों का वर्णन कर रहे हैं। यह अष्टपदी मालव गौड़ राग में तथा रूपक ताल से गायी जाती है।

मालवगौड़ राग का स्वरूप इस प्रकार है-

नितम्बिनीचुम्बितवक्त्रपद्म:, शुकद्युति: कुण्डलवान् प्रमत्त:।
संगीतशालां प्रविशन् प्रदोषे, मालाधरो मालवरागराज:॥

नितम्बिनी नायिका के द्वारा चुम्बित मुखकमल वाला, शुक के समान हरित-वर्ण की कान्ति वाला, कानों में कुण्डल तथा गले में माला पहने हुए, मदमत्त, रागों का राजा मालव संगीतशाला में प्रवेश करता है। इस अष्टपदी का ताल रूपक है। जैसे अन्त में विराम और द्रुत दोनों के मिलन में विलक्षणा रूपक ताल होता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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