गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 387

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

दशम: सर्ग:
चतुरचतुर्भुज:

ऊनविंश: सन्दर्भ:

19. गीतम्

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शशिमुखि! तव भाति भंगुर भू्र,
र्युवजनमोह-कराल कालसर्पी।
तदुदित-भय-भञ्जनाय यूनां
त्वदधर-सीधु-सुधैव सिद्धमंत्र: ॥3॥[1]

पद्यानुवाद
बंकिम भौंहें नागिनि तेरी डस लेती जब जन को।
अधर सुधा ही विष हरता है, विरुज बनाता तन कोन॥


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [मम कोपो नास्त्येव चेत्र तत्राह]- अयि शशिमुखि (चन्द्रानने), तव भंगुरभ्रू: (भंगुरा कुटिला भ्रू:) [यदि कोपिना नासि तत् कुतस्ते भ्रुवोर्भंगुरत्वम्?], युवजन-मोह-कराल-कालसर्पी (युवजनानां तरुणानाम् अस्माकं मोहाय मूर्च्छाविधानाय कराला भीषणा कालसर्पा भाति विराजते), तदुदित-भय-भञ्जनाय तस्या: भ्रुव: उदितस्य भयस्य भञ्जनाय नाशाय) [अस्माकं] त्वदधर-सीधु-सुधैव (तव अधर-मधुरूपा सुधा एव; मादकत्वात् सीधु इति मधुरत्वाच्च सुधेत्युक्तम्) सिद्धमन्त्र: [नान्यत् किञ्चिदित्यर्थ:] [अमृतपानेनैव विषभयं निवर्त्तते इति भाव:] ॥3॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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