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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
दशम: सर्ग:
चतुरचतुर्भुज:
ऊनविंश: सन्दर्भ:
19. गीतम्
अनुवाद- हे शशिमुखि! तुम्हारी कुटिल भ्रूलता युवजन विह्नलकारी कराल कालजयी सर्पिणी के समान है। इससे उत्पन्ना भय को भञ्जन हेतु तुम्हारे अधर से विगलित मदिरा सुधा ही एकमात्र सिद्धमन्त्र स्वरूप है। बालबोधिनी- श्रीकृष्ण वात्स्यायन-न्याय का आश्रय लेकर कहते हैं- हे चन्द्रमुखि! तुम्हारा मुखमण्डल तो चन्द्रमा सरीखा है, परन्तु तुम्हारे मुख पर विद्यमान भौंहें अति कुटिल हैं, जो मेरे जैसे युवजनों के लिए महाभयंकर काल सर्पिणी के समान मोहित करने वाली, अत्यन्त भय का उत्पादन कर रही हैं, अरे जो हिंस्त्रमुखी होती हैं, परन्तु तुम तो चन्द्रमुखी हो। तरुणों के प्रति कोप प्रकाशित मत करो। इस काल नागिनी के काटने पर कोई युवक बच नहीं सकता, न ही कोई ऐसी औषध है, जिससे गरल की ज्वाला शान्त हो जाय। हाँ, तुम्हारी अधर-सुधा ही तुम्हारी भू्र-रूपिणी सर्पिणी के डँसने से उत्पन्न विष को शान्त करने के लिए सिद्धमन्त्र स्वरूप है। प्रस्तुत श्लोक में पुष्पिताग्रा छंद है। कल्पितोपमा एवं रूपक अलंकार है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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