गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 373

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

दशम: सर्ग:
चतुरचतुर्भुज:

ऊनविंश: सन्दर्भ:

19. गीतम्

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नीलनलिनाभमपि तन्वि तव लोचनं धारयति कोकनद-रूपम्।
कुसुमशरबाणभावेन यदि रञ्जयसि कृष्णमिदमेतदनुरूपम्॥
प्रिये.... 4॥[1]


पद्यानुवाद
नलिन नेत्र नीले, बने कोकनद से।
हुआ कृष्ण रञ्जित, अगर बाण-स्मर से॥
तभी सिद्ध होगा नयन-रूप सुन्दर।
तभी सिद्ध होगा, वदन-रूप सुन्दर॥
प्रिये! चारुशीले! तजो मान प्यारा।
अधर पद्म-रस दे हरो ताप सारा॥


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [स्वगुण-परीक्षणोपकरणत्वेन चेन्मामंगीकरोषि तथापि चरितार्थ: स्याम् इत्यत आह]- अयि तन्वि (कृशांगी) नील-नलिनाभमपि (नीलात्पलतुल्यमपि) तव लोचनं [सम्प्रति अभिमानज-रोषात्] कोकनदरूपं (रक्तोत्पलरूपं) धारयति [एतेन त्वयि अनुरञ्जिनी विद्यास्ति इत्यवधारितम्; एषा विद्या मयि परीक्ष्यताम्]; [परीक्षाप्रकारमाह]- यदि [त्वं] कृष्णं (कृष्णरूपं मां) [तेन लोचनेन] कुसुमशरबाणभावेन (कुसुमशरस्य मदनस्य य: सम्मोहनाख्य: बाण: तस्य भाव: उत्पत्ति: यस्मात् तथा भूतेन सानुरागकटाक्षावलोकनेन इत्यर्थ:) रञ्जयसि, [तर्हि] इदं (कार्यमेव) एतदनुरूपं (एतस्य लोचनस्य योग्यं) [स्यात्]; शिक्षिता विद्या प्रयोगेणैव साफल्यं व्रजतीति भाव:] ॥4॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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