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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
दशम: सर्ग:
चतुरचतुर्भुज:
ऊनविंश: सन्दर्भ:
19. गीतम्
अनुवाद हे कृशांगि! तुम्हारे इन्दीवर के समान नेत्रों ने इस समय रक्तोपल का रूप धारण किया है। मदन-भाव से परिपूर्ण कटाक्ष बाण से कृष्णवर्ण इस शरीर को यदि रञ्जित कर दोगी तो अनुरूप होगा। बालबोधिनी- श्रीकृष्ण कह रहे हैं राधे! तुम्हारी आँखें तो स्वाभाविक ही नीलकमल के समान हैं, तुम अपने नेत्रों को नये-नये अनुराग-रंग में रञ्जित करने में सुनिपुण हो। अपने इन गुणों को उपकरण रूप में बनाकर यदि मुझे अस्वीकार करती हो तो मेरा जीवन चरितार्थ हो जायेगा, पर अधुना तुम्हारे नेत्रों ने सहजता का परित्याग कर रक्तकमल की आरक्तता धारण कर ली है। यह तो तुम्हारी कोई अनुरञ्जिनी विद्या है। ऐसा स्पष्ट हो रहा है कि कृष्णवर्ण की वस्तुओं को रक्त वर्ण की बना देने की तुममें सामर्थ्य है, अतएव तुम यदि इन कटाक्षरूपी मदन-शरों से मुझे बेध दो, तब तो मैं समझूँगा कि तुमने विद्या का समुचित प्रयोग किया है। राधे, क्रोध न कर मुझसे प्रेम करो एवं काम-क्रीड़ाव्यातृप्त हो जाओ। यही तुम्हारी स्वाभाविकता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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