गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 374

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

दशम: सर्ग:
चतुरचतुर्भुज:

ऊनविंश: सन्दर्भ:

19. गीतम्

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अनुवाद हे कृशांगि! तुम्हारे इन्दीवर के समान नेत्रों ने इस समय रक्तोपल का रूप धारण किया है। मदन-भाव से परिपूर्ण कटाक्ष बाण से कृष्णवर्ण इस शरीर को यदि रञ्जित कर दोगी तो अनुरूप होगा।

बालबोधिनी- श्रीकृष्ण कह रहे हैं राधे! तुम्हारी आँखें तो स्वाभाविक ही नीलकमल के समान हैं, तुम अपने नेत्रों को नये-नये अनुराग-रंग में रञ्जित करने में सुनिपुण हो। अपने इन गुणों को उपकरण रूप में बनाकर यदि मुझे अस्वीकार करती हो तो मेरा जीवन चरितार्थ हो जायेगा, पर अधुना तुम्हारे नेत्रों ने सहजता का परित्याग कर रक्तकमल की आरक्तता धारण कर ली है। यह तो तुम्हारी कोई अनुरञ्जिनी विद्या है। ऐसा स्पष्ट हो रहा है कि कृष्णवर्ण की वस्तुओं को रक्त वर्ण की बना देने की तुममें सामर्थ्य है, अतएव तुम यदि इन कटाक्षरूपी मदन-शरों से मुझे बेध दो, तब तो मैं समझूँगा कि तुमने विद्या का समुचित प्रयोग किया है। राधे, क्रोध न कर मुझसे प्रेम करो एवं काम-क्रीड़ाव्यातृप्त हो जाओ। यही तुम्हारी स्वाभाविकता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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