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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
अष्टम: सर्ग:
विलक्ष्यलक्ष्मीपति:
सप्तदश: सन्दर्भ:
17. गीतम्
बहिरिव मलिनतरं तव कृष्ण मनोऽपि भविष्यति नूनम्। अनुवाद- हे कृष्ण! जैसे तुम्हारा शरीर मलिन है, वैसे ही तुम्हारा मन भी अवश्य ही मलिन हो गया होगा। यदि ऐसा न होता तो मदन-शर से जर्जरित अपने अनुगत (आश्रित) जन की इस प्रकार वञ्चना न करते। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- [सौरभलुब्धभ्रमरेण दृष्टोऽयमधरो नतु अन्यनायिका-चुम्बनादितिचेत्र, तदपि न]- हे कृष्ण तव [मलिनात्मकं] मन: अपि बहिरिव बाह्यं शरीरमिव) नूनं (निश्चितं) मलिनतरं (कृष्णं) भविष्यति। अथ (अन्यथा) अनुगतं (त्वदेकायत्तं) असम-शर-ज्वरदूनं (असमशरस्य कामस्य ज्वरेण दूनं सन्तप्तं) [मां] कथं वञ्चय से (प्रतारयसि) (शुद्धान्त:करणस्य नेयं रीतिरित्यर्थ:] ॥6॥
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