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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:
अथ षोड़ष: सन्दर्भ:
16. गीतम्
मनोभवानन्दन चन्दनानिल! अनुवाद- हे कन्दर्प को आनन्द देने वाले मलयाचल के समीर! दक्षिण ही बने रहो! वामता का त्याग कर दो! हे जगत के प्राणस्वरूप! माधव को मेरे सामने कर तुम मेरे प्राण हर लेना। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- [अत्यावेशेन मनोवाष्पमुद्रगिरति दैन्येनाधुना मलयानिलं सविनयं प्रार्थयते]- हे मनोभवानन्दन (आनन्दयतीति आनन्दन:; मनोभवस्य आनन्दन: तत्सम्बुद्धौ हे मदनानन्दकर) हे चन्दनानिल (मलयवायो) प्रसीद (प्रसन्नो भव); [पुनरीर्योदयादाह]- रे दक्षिण (सरल-स्वभाव, सर्वानुकूल इति यावत्) वामतां (प्रतिकूलतां) मुञ्च (त्यज) [दक्षिणपथप्रवृत्तस्य वाम-पथ प्रवृत्तेरयुक्तत्त्वात् वामता त्याज्य इति भाव:]; [तर्हि किं विधेयं तत्रह]- [जगद्धितोऽपि मनोभवानन्दनाय चन्दनतरु-सम्पर्कात् विषमश्चेत्र मां मारयसि तर्हि] हे जगत्प्राण! क्षणं मम पुर: (अग्रत:) माधवं विधाय (संस्थाप्य) [पश्चात्] मम प्राणहरो भविष्यसि ॥1॥
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