गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 316

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:

अथ षोड़ष: सन्दर्भ:

16. गीतम्

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मनोभवानन्दन चन्दनानिल!
प्रसीद रे दक्षिण! मुञ्च वामताम्।
क्षणं जगत्प्राण! विधाय माधवं।
पुरो मम प्राणहरो भविष्यसि ॥1॥ [1]

अनुवाद- हे कन्दर्प को आनन्द देने वाले मलयाचल के समीर! दक्षिण ही बने रहो! वामता का त्याग कर दो! हे जगत के प्राणस्वरूप! माधव को मेरे सामने कर तुम मेरे प्राण हर लेना।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [अत्यावेशेन मनोवाष्पमुद्रगिरति दैन्येनाधुना मलयानिलं सविनयं प्रार्थयते]- हे मनोभवानन्दन (आनन्दयतीति आनन्दन:; मनोभवस्य आनन्दन: तत्सम्बुद्धौ हे मदनानन्दकर) हे चन्दनानिल (मलयवायो) प्रसीद (प्रसन्नो भव); [पुनरीर्योदयादाह]- रे दक्षिण (सरल-स्वभाव, सर्वानुकूल इति यावत्) वामतां (प्रतिकूलतां) मुञ्च (त्यज) [दक्षिणपथप्रवृत्तस्य वाम-पथ प्रवृत्तेरयुक्तत्त्वात् वामता त्याज्य इति भाव:]; [तर्हि किं विधेयं तत्रह]- [जगद्धितोऽपि मनोभवानन्दनाय चन्दनतरु-सम्पर्कात् विषमश्चेत्र मां मारयसि तर्हि] हे जगत्प्राण! क्षणं मम पुर: (अग्रत:) माधवं विधाय (संस्थाप्य) [पश्चात्] मम प्राणहरो भविष्यसि ॥1॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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