गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 317

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:

अथ षोड़ष: सन्दर्भ:

16. गीतम्

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बालबोधिनी- कामदेव के बाणों के प्रहार को न सह सकने के कारण श्रीराधा मलयानिल को सम्बोधित करती हुई कहती हैं- काम के बाणों को उनके लक्ष्य तक पहुँचाने वाली मलयाचल की वायु मेरे लिए प्रतिकूल बन गयी है, मुझे जलाकर अपने मित्र कामदेव को तो आह्लादित कर दिया और मुझे काम की पीड़ा से इतना दग्ध कर दिया। दक्षिणानिल कहलाते हो, सम्पूर्ण जगत को आनन्द प्रदान करते हो, फिर मेरे लिए तुम्हारा आचरण प्रतिकूल क्यों है? क्यों वाम भाव धारण किया है?

मैं जानती हूँ- तुम मदन के सहचर हो, मलयाचल पर्वत पर सर्पों से घिरे हुए चन्दन वृक्षों के संसर्ग से तुम्हारा स्वभाव अवश्य ही दूषित हो गया है, कितना सन्तप्त कर रहे हो मुझे? हे जगत्प्राण! क्षणभर के लिए प्रसन्न हो जाओ, क्षमा करो मुझे। अपनी प्रतिकूलता का त्याग कर दो, मेरे प्राणों को हर लेना, पर पहले एक क्षण के लिए प्राण नाथ माधव का दर्शन करा दो, फिर प्राणापहारक बन जाओ।

वंशस्थ छन्द है, अतिशयोक्ति अलंकार है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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