गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 281

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:

चतुर्दश: सन्दर्भ

14. गीतम्

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चञ्चल-कुण्डल-ललित-कपोला।
मुखरित-रसन-जघन-गति-लोला
कापि मधुरिपुणा... ॥4॥[1]

अनुवाद- कुण्डल-युगल चञ्चल होने पर उसके कपोल-तल की शोभा और भी बढ़ रही होगी, कटितट पर विराजमान मणिमय मेखला की क्षुद्र घण्टिकाएँ उसके जघनस्थल पर आन्दोलित होने के कारण सुमधुररूप से मुखरित हो रही होंगी।

पद्यानुवाद
चंचल कुंडल ललित कपोला।
मुखरित रसन जघन गति लोला॥
शोभित है युवती री कोई।
हरिसे विलस रही जो खोई॥

बालबोधिनी- रतिक्रीड़ा में संलग्न उसके कुण्डल-युगलों का आन्दोलित होना स्वाभाविक ही है- इससे उसके कपोलों की मनोहरता और भी बढ़ गयी होगी, मेखला में संलग्न घुँघरू बार-बार बजते होंगे, जाँघों का सदा संचलन होने के कारण वह अति चंचल प्रतीत होती होगी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- चञ्चल-कुण्डल-ललित-कपोला (चञ्चलाभ्यां तदधर-पानावेशादिति भाव: कुण्डलाभ्यां ललितौ परममनोहरौ कपोलौ यस्या: सा) [तथा] मुखरित-रसन-जघन-गति-लोला (मुखरिता शब्दायमाना रसना काञ्ची यस्मिन् तादृशस्य जघनस्य गति: तया लोला चपला) ॥4॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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