गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 280

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:

चतुर्दश: सन्दर्भ

14. गीतम्

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विचलदल-कललितानन-चन्द्रा।
तदधर-पान रभस-कृत-तन्द्रा
कापि मधुरिपुणा... 3 [1]

अनुवाद- उसका मुखचन्द्र घुँघराली अलकावलियों से सुललित हो रहा होगा और श्रीकृष्ण की अधर-सुधा का पान करने की अतिशय लालसा के कारण नयनयुगल आनन्दपूर्वक निमीलित हो रहे होंगे।

पद्यानुवाद
अलक-ललित मृदु आनन चन्द्रा।
अमार-पान-मुद अधिकृत तन्द्रा
शोभित है युवती री कोई।
हरिसे विलस रही जो खोई॥

बालबोधिनी- उस रमणी का मुखचन्द्र चंचल अलकावलियों के कारण और भी अधिक शोभाशाली दीखता होगा। रतिकाल में श्रीकृष्ण की अधर-सुधा का पान कर रतिजन्य आनन्द में निमग्न आँखें बन्द करके वह कपट निद्रा का मिथ्या अभिनय कर रही होगी।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- विचलदलक-ललितानन-चन्द्रा (विचलद्धि: अलकै: चूर्णकुन्तलै: ललित: सुन्दर: आननमेव चन्द्रो यस्यास्तादृशी) [तथा] तदधर-पान-रभस-कृत-तन्द्रा (तस्य कृष्णस्य अधरपान-रसभेन अधरपानावेशेन कृता तन्द्रा आनन्द-निमीलनं यस्या: तादृशी) ॥3॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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