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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:
त्रयोदश: सन्दर्भ
13. गीतम्
अहह कलयामि वलयादि-मणि-भूषणम्। अनुवाद- हाय! मणिजड़ित बलयादि आभूषण समुदाय मेरे विरहानल को उद्दीपित कराकर मुझे अशेष दु:ख प्रदान कर रहा है। अत: यह तो दोषयुक्त ही प्रतीत हो रहा है। पद्यानुवाद बालबोधिनी- आह! सखि! तुमने बड़ा छल किया। मैंने पुष्पों-पल्लवों, मणियों से सजे इतने आभूषणों से शरीर को सजाया, पर सभी हरि के विरह की आगमें अनल सदृश ही प्रतीत हो रहे हैं। मदन की वेदना से शरीर विरहाग्नि में तप्त हो रहा है। अब ये आभूषण नहीं रहे, अभिशाप हो गये हैं, क्योंकि प्रिय के अवलोकन का फल ही रमणियों का सौन्दर्य एवं परिधान है अथवा अलंकार का प्रियत्व तो तभी अनुभव होता है, जब कोई उनको प्रेमपूर्वक देखने वाला हो। अत: इनसे प्रयत्व की प्रतीति नहीं, दोष की प्रतीति होती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- अहह, हरि-विरह-दहन-बहनेन (हरिविरह एव दहनो वह्रि: तस्य वहनेन धारणेन) वलयादि-मणि-भूषणं (मत्परिहित-कप्रणादि-रत्नालंकार:) बहुदूषणं (बहूनि दूषणानि यस्य तत्र अत्यधिक-दोषावहं, विरहानलसन्धुक्षितत्त्वात् अतिक्लेशकरमित्यर्थ:) कलयामि (मन्ये) प्रियावलोकफलोहि स्त्रीणां वेश इत्युक्ते: ॥5॥
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