गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 269

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:

त्रयोदश: सन्दर्भ

13. गीतम्

Prev.png

अहह कलयामि वलयादि-मणि-भूषणम्।
हरि-विरह-दहन-वहनेन बहु-दूषणम्
यामि हे! कमिह... ॥5॥[1]

अनुवाद- हाय! मणिजड़ित बलयादि आभूषण समुदाय मेरे विरहानल को उद्दीपित कराकर मुझे अशेष दु:ख प्रदान कर रहा है। अत: यह तो दोषयुक्त ही प्रतीत हो रहा है।

पद्यानुवाद
मणि-भूषण दूषण लगते हैं,
पिय बिन कुछ न सुहाता।

बालबोधिनी- आह! सखि! तुमने बड़ा छल किया। मैंने पुष्पों-पल्लवों, मणियों से सजे इतने आभूषणों से शरीर को सजाया, पर सभी हरि के विरह की आगमें अनल सदृश ही प्रतीत हो रहे हैं। मदन की वेदना से शरीर विरहाग्नि में तप्त हो रहा है। अब ये आभूषण नहीं रहे, अभिशाप हो गये हैं, क्योंकि प्रिय के अवलोकन का फल ही रमणियों का सौन्दर्य एवं परिधान है अथवा अलंकार का प्रियत्व तो तभी अनुभव होता है, जब कोई उनको प्रेमपूर्वक देखने वाला हो। अत: इनसे प्रयत्व की प्रतीति नहीं, दोष की प्रतीति होती है।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- अहह, हरि-विरह-दहन-बहनेन (हरिविरह एव दहनो वह्रि: तस्य वहनेन धारणेन) वलयादि-मणि-भूषणं (मत्परिहित-कप्रणादि-रत्नालंकार:) बहुदूषणं (बहूनि दूषणानि यस्य तत्र अत्यधिक-दोषावहं, विरहानलसन्धुक्षितत्त्वात् अतिक्लेशकरमित्यर्थ:) कलयामि (मन्ये) प्रियावलोकफलोहि स्त्रीणां वेश इत्युक्ते: ॥5॥

संबंधित लेख

गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः