गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 268

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:

त्रयोदश: सन्दर्भ

13. गीतम्

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पद्यानुवाद
इधर मधुर यह रात मुझे अब रह रह रुला रही है।
उधर अन्य कृत सुकृत कामिनी हरिको भुला रही है॥

बालबोधिनी- अन्तर-हृदय की विकट विरह-वेदना को अभिव्यक्त करती हुई श्रीराधा कहती हैं- परमसुखस्वरूपा वसन्त ऋतु की ये सरस रात्रियाँ मुझे अतिशय व्यथित कर रही हैं, दूसरी ओर कोई सुकृतशालिनी किशोरी श्रीकृष्ण के साथ रति-क्रीड़ा का रसास्वादन कर रही है। उस विलासिनी के प्रेमपाश में बँधकर रमण करते हुए श्रीकृष्ण इस संकेत-भूमि पर नहीं आये। कितनी सुकृति का अभाव है? मैं विरह-विधुरा होकर विलाप कर रही हूँ और दूसरी उनके साथ रति-सुख का अनुभव कर रही है।

विश्वकोष में विधुर का तात्पर्य 'विकलता' से है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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