गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 242

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

पञ्चम: सर्ग:
आकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष:

एकादश: सन्दर्भ

11. गीतम्

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बालबोधिनी- तुम्हारी प्राप्ति ही श्रीकृष्ण का सर्वस्व है, इसका दिग्दर्शन करते हुए सखी श्रीराधा से कह रही है-हे अतिशय सुन्दरि! जब तुम यहाँ से चलने लगोगी, तब तुम्हारा मार्ग अन्धकार से परिपूर्ण होगा। उस अन्धेरे पथ पर चलते हुए भयभीत होकर चकित-सी तुम आगे पैर बढ़ाओगी। अन्धकार में भय का होना तो स्वाभाविक ही है, कहीं कोई देख न ले, अत: चकित होना भी सहज ही है। ऐसे निविड़ अन्धकार में मैं श्रीकृष्ण से मिलने के संकेत-स्थान पर जा रही हूँ ऐसा विस्मय तो होगा ही, जाने पर श्रीकृष्ण से मिलन होगा या नहीं यह शंका भी होगी। स्तन एवं नितम्ब भार से तुम्हारा शरीर शीघ्र ही अतिशय क्लान्त हो जाता है, अत: शीघ्र जाने में असमर्थ अलसायी-सी तुम प्रत्येक वृक्ष के नीचे ठहर-ठहर कर चलना। अनंग की लहरें तुम्हारे शरीर पर क्रीड़ा कर रही हैं, इस शिथिलता से उपलक्षित संकेत स्थान पर तुम्हें देखकर शुभग श्रीकृष्ण कृत्कृत्य हो जाएँगे। वे प्रसन्नता के अतिशय आवेग में अवगाहन करने लगेंगे।

प्रस्तुत श्लोक में हरिणी छन्द तथा अतिशयोक्ति नामक अलंकार है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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