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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
पञ्चम: सर्ग:
आकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष:
एकादश: सन्दर्भ
11. गीतम्
सभय-चकितं विन्यस्यन्तीं दृशौ तिमिरे पथि अनुवाद- हे शोभने! तिमिरमय पथ पर भय और चकित दृष्टि से देखती हुई, तरुवरों के समीप खड़ी होकर पुन: शनै:-शनै: पग बढ़ाती हुई, किसी प्रकार एकान्त में पहुँची हुई, काम की तरंगों से कल्लोलित होती हुई तुम्हें देखकर सौभाग्यवान श्रीकृष्ण कृत्कृत्य होंगे।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- [अथैतच्छ्रवणव्यग्रतया गमनाय उद्यतामवलोक्य गमनप्रकार-माहज अयि सुमुखि (सुवदने) सुभग: (भाग्यवान् तव प्रणय- सौभाग्यशालीति यावत्र) हरि: तिमिरे (तमसावृते इत्यर्थ:) पथि (वर्त्मनि) प्रतितरु (प्रतिवृक्षे) सभयचकितं यथा तथा; कुत्रचित् तिष्ठता केनचित् द्रक्षे हमिति नेत्रस्य सभयचकितत्त्वम्) दृशं (नेत्रं) विन्यस्यन्तीं (निक्षिपन्तीं) मुहु: (पुन: पुन:) स्थित्वा (ससाध्वसं विश्रम्य) मन्दं यथा तथा पदानि वितन्वतीं (विक्षिपन्तीं) दौर्बल्यात् शीघ्रगमनाशक्त्या पदयो: मन्द-मन्द- विन्यासत्त्वम् [अत:] कथमपि (अतिक्लेशेन) रह:प्राप्तां (एकान्ते उपस्थितां) अनंग-तरिंगिभि: (कामतरंगपूर्णै:, उत्कण्ठया अनंग-तर त्विस नानाम्) अंगै: उपलक्षितां त्वां पश्यन् कृतार्थतां (साफल्यं) उपेतु (प्राप्नोतु कृतार्थो भवतु इत्यर्थ:) ॥4॥
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