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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
द्वितीय सर्ग
अक्लेश-केशव:
अथ षष्ठ सन्दर्भ
6. गीतम्
किशलय-शयन-निवेशितया चिरमुरसि ममैव शयानम्। अनुवाद- मनोरम, नवीन एवं कोमल पल्लवों की शय्यापर जिन्होंने मुझे सुलाकर मेरे हृदय के ऊपर बड़े उल्लसित होकर सुख से शयन किया था, जिनका मैंने प्रगाढ़ रूप से आलिंगन एवं चुम्बन किया था, पुन: जिन्होंने उसी प्रबलतर अनंग रस में निमज्जित होते हुए मेरा परिरम्भण कर मेरे अधरसुधा का बारम्बार पान किया था, सखि! उन्हीं प्राणप्रियतम श्रीकृष्ण से मुझे मिला दो ॥3॥ पद्यानुवाद बालबोधिनी- सखि! वे श्रीकृष्ण संकेत-स्थान में मुझे कोमल पल्लवों से रचित शय्या पर सुला देते थे, इसके पश्चात् वे मेरे वक्ष:स्थल पर चिरकाल तक रमण करते थे। मैं उन श्रीकृष्ण का आलिंगन कर उनका चुम्बन कर लेती थी। उस समय श्रीकृष्ण भी मुझे आलिंगन करके मेरे अधरसुधा का पान करते थे। सखी मुझे उन श्रीकृष्ण से मिलन करा दो। कृत परिरम्भण इस प्रकार के आलिंगन को रसमञ्जरीकार ने क्षीरनीर नामक आलिंगन बताया है और कथन की पुष्टि के लिए पञ्चसायक नामक ग्रन्थ का प्रमाण दिया है। रसिकप्रियाकार ने इस प्रकार के आलिंगन को तिल-तण्डुल नामक आलिंगन माना है और अपने कोकशास्त्र का प्रमाण दिया है ॥3॥ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- किशलय-शयन-निवेशितया पल्लव-शय्याशायितया) [मया सह] चिरं (बहुक्षणं) ममैव उरसि (वक्षसि) शयानं [केशिमथनम्.....] [तथा] कृत-परिरम्भण-चुम्बनया (कृतं परिरम्भणं चुम्बनञ्च यया) [मया सह] पररिभ्य [आलिंग्य] कृताधरपानं (कृताधरचुम्बनं) [केशिमथनम्.....] ॥3॥
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