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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
द्वितीय सर्ग
अक्लेश-केशव:
अथ षष्ठ सन्दर्भ
6. गीतम्
प्रथम समागम लज्जितया पटु-चाटु-शतैरनुकूलम्। अनुवाद- प्रथम मिलन में स्वभावसुलभ लज्जा से अत्यन्त विमुग्ध देखकर मेरी लज्जा को दूर करने के लिए उन्होंने अनेक प्रकार की अनुनय-विनयरूप वचन परम्परा का प्रयोग किया। उनकी चाटुकारितापूर्ण बातों से विमुग्ध होकर मैं कोमल तथा मधुर मुस्कान के साथ उनसे वार्तालाप करने लगी, उस समय मेरे जघन-प्रदेश के वस्त्र को हटाने वाले विदग्ध श्रीकृष्ण से मुझे मिला दो ॥1॥ पद्यानुवाद बालबोधिनी- श्रीराधा सखी से कहती हैं- यद्यपि प्रियतम श्रीकृष्ण से यह मेरा प्रथम मिलन नहीं था, फिर भी मैं उनके समक्ष ऐसी चेष्टा कर रही थी, जिस प्रकार कोई नायिका प्रथम समागम के काल में अपने प्रियतम के समीप बहुत लज्जित होती है। श्रीकृष्ण उसी समय अपने चाटुवाक्यों से मुझे अपने मनोनुकूल बनाते जाते थे। मैं उनके उन मधुर वचनों से आह्लादित होती थी और मधुर मुस्कान के साथ उनसे मृदु भाषण करती थी। जैसे ही वे मुझे मनोनुकूल देखते थे- तभी मेरी जंघा के वस्त्रों को उन्मोचित कर देते थे। मैं उन्हीं श्रीकृष्ण के साथ रमण करना चाहती हूँ सखी! मुझे उनसे मिलाओ। प्रथम समागम यह रति-रस नवनवायमान रूप में ही नित्य अनुभूत होता है ॥3॥ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- प्रथम-समागम- पटुचाटुशतै: (पटूनि नारी-मनोहरण-निपुणानि-निपुणानि यानि चाटूनां प्रियवादनां शतानि तै:) अनुकूलं (अनुकूलयन्तं कृतापराधं मां क्षमस्वेति असकृत् कथयन्तं) [केशिमथनम्..], [तथा] मृदु-मधुर-स्मित-भाषितया (मृदु मधुरं यत् स्मितम् ईषद्धास: तेन सह भाषितं भाषणं यस्या: तथाभूतया) [मया सह] शिथिलीकृत-जघन-दुकूलं (शिथलीकृतं प्रभ्रंशितं जघनस्थंदुकूलं वसनं येन तादृशं) [केशिमथनम्.....] ॥2॥
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