गीता रहस्य -तिलक पृ. 501

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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पन्द्रहवां प्रकरण

इतना ही नहीं; बल्कि उसका कुछ कुछ प्रभुत्व मुसलमानी धर्म पर भी जमने लगा, कबीर जैसे भक्त इस देश की सन्त-मण्डली में मान्य हो गये और औरंगजेब के बड़े भाई शाहजादा दारा ने इसी समय अपनी देखरेख में उपनिषदों का फारसी में भाषान्तर कराया। यदि वैदिक भक्ति-धर्म अध्यात्मज्ञान को छोड़ केवल तांत्रिक श्रद्धा के ही आधार पर स्थापित हुआ होता; तो इस बात का संदेह है कि उसमें यह विलक्षण सामर्थ्य रह सकता या नहीं। परंतु भागवतधर्म का यह आधुनिक पुनरुज्जीवन मुसलमानों के ही जमाने में हुआ हैं, अतएव वह भी अनेकांशों मे केवल भक्तिविषयक अर्थात एक-देशीय हो गया है और मूल भागवत-धर्म के कर्मयोग का जो स्वतंत्र महत्त्व एक बार घट गया था वह उसे फिर प्राप्त नहीं हुआ। फलतः इस समय के भागवतधर्मीय संतजन, पंडित और आचार्य लोग भी यह कहने लगे कि कर्मयोग भक्तिमार्ग का अंग या साधन है, जैसा पहले संन्यासमार्गीय लोग कहा करते थे कि कर्मयोग संन्यासमार्ग का अंग या साधन है। उस समय में प्रचलित इस सर्वसाधारण मत या समझ के विरुद्ध केवल श्रीसमर्थ रामदासस्वामी ने अपने ‘दासबोध’ ग्रंथ में विवेचन किया है। कर्ममार्ग के सच्चे और वास्तविक महत्त्व का वर्णन, शुद्ध तथा प्रासादिक मराठी भाषा में, जिसे देखना हो उसे समर्थ-कृत इस ग्रंथ को विशेषतः उत्तरार्ध को अवश्‍य पढ़ लेना चाहिये[1]

शिवाजी महाराज को श्रीसमर्थरामदासस्वामी का ही उपदेश मिला था; और, मरहठों के जमाने में जब कर्मयोग के तत्त्वों को समझाने तथा उनका प्रचार करने की आवश्‍यकता मालूम होने लगी, तब शांडिल्यसूत्रों तथा ब्रह्मसूत्र भाष्यों के बदले महाभारत का गद्यात्मक भाषान्तर होने लगा एवं ‘बखर’ नामक ऐतिहासिक लेखों के रूप में उसका अभ्यास शुरू हो गया। ये भाषान्तर तंजौर के पुस्तकालय में आज तक रखे हुए हैं। यदि यही कार्य-क्रम बहुत समय तक अबाधित रीति से चलता रहता; तो गीता की सब एक-पक्षीय ओैर संकुचित टीकाओं का महत्त्व घट जाता और काल-मान के अनुसार एक बार फिर भी यह बात लोगों के ध्यान में आ जाती, कि महाभारत की सारी नीति का सार गीता-प्रतिपादित कर्मयोग में कह दिया गया है। परन्तु, हमारे दुर्भाग्य से कर्मयोग का यह पुनरुज्‍जीवन बहुत दिनों तक नहीं ठहर सका। हिन्दुस्थान के धार्मिक इतिहास का विवेचन करने का यह स्थान नहीं है। ऊपर के संक्षिप्त विवेचन से पाठकों को मालूम हो गया होगा, कि गीताधर्म में जो एक प्रकार का जिन्दापन, तेज या सामर्थ्य है वह संन्यास-धर्म के उस दबदबे से भी बिलकुल नष्ट नहीं होने पाया, कि जो मध्यकाल में दैववशात्‌ हो गया है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिन्दी-प्रेमियों को यह जानकर हर्ष होगा कि वे अब समर्थ रामदास स्वामी कृत इस ‘दासबोध’ नामक मराठी ग्रंथ के उपदेशामृत से वंचित नहीं रह सकते, क्योंकि उसका शुद्ध, सरल तथा हृदयग्राही अनुवाद हिन्दी में भी हो चुका है। यह हिन्दी ग्रंथ चित्रशाला प्रेस, पूना से मिल सकता है।

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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