गीता रहस्य -तिलक पृ. 395

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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बारहवां प्रकरण

हमने इस प्रकरणा में कर्मयोगशास्‍त्र की इन मोटी मोटी बातों का संक्षिप्‍त निरूपण किया है कि आत्‍मौपम्‍य दृष्टि से समाज में परस्‍पर एक दूसरे के साथ कैसा बर्ताव करना चाहिये; जैसे को तैसे वाले न्‍याय से अ‍थवा पात्रता अपात्रता के कारण सब से बढ़े चढ़े हुए नीतिधर्म में कौन से भेद होते हैें, अथवा अपूर्ण अवस्‍था के समाज में बर्तनेवाले साधु पुरुष को भी अपवादात्‍मक नीति-धर्म कैसे स्‍वीकार करने पड़ते है। इन्‍ही युक्तियों का न्‍याय परोपकार,दान,दया,अहिंसा सत्‍य और अस्‍तेय आदि नित्‍यधर्मों के विषय में उपयोग किया जा सकता है। आजकल की अपूर्ण समाज-व्‍यवस्‍था में यह दिखलाने के लिये कि प्रसन्‍न के अनुसार इन नीतिधर्मों में कहाँ और कौन सा फर्क करना ठीक होगा, यदि इन धर्मों में से प्रत्‍येक पर एक-एक स्‍वतन्‍त्र ग्रन्‍थ लिखा जाये तो भी यह विषय समाप्‍त न होगा; और यह भगवद्गीता का मुख्‍य उपदेश भी नहीं है। इस ग्रन्‍थ के दूसरे ही प्रकरण में इसका दिग्‍दर्शन कर आये हैं कि अहिंसा और सत्‍य, सत्‍य और आत्‍मरक्षा, आत्‍मरक्षा और शान्ति आदि में परस्‍पर विरोध हो कर विशेष प्रसन्‍न पर कर्त्तव्‍य अकर्त्तव्‍य का सन्‍देह उत्‍पन्‍न हो जाता है यह निर्विवाद है कि ऐसे अवसर पर साधु पुरुष ‘नीति धर्म, लोकयात्रा, व्‍यवहार स्‍वार्थ और सर्वभूतहित’ आदि बातों का तारतम्‍य विचार करके फिर कार्य अकार्य का निर्णय किया करते हैं और महाभारत में श्‍येन ने शिबि राजा को यह बात स्‍पष्‍ट ही बतला दी है। सिज्विक नामक अं‍ग्रेज गन्‍थकार ने अपने नीतिशास्‍त्र विषयक ग्रन्‍थ में इसी अर्थ का विस्‍तार सहित वर्णन अनेक उदाहरण ले कर किया है।

किन्‍तु कुछ परिश्रमी पंडित इतने ही से यह अनुमान करते हैं कि स्‍वार्थ और परार्थ के सार असार का विचार करना ही निति निर्णय का तत्त्व है, परन्‍तु इस तत्त्व को हमारे शास्‍त्रकारों ने कभी मान्‍य नहीं किया है। क्‍योंकि हमारे शास्‍त्रकारों का कथन है कि यह सार असार का विचार अनेक बार इतना सूक्ष्‍म और अनैकान्तिक अर्थात अनेक अनुमान निष्‍पक्ष कर देने वाला होता है कि यदि यह साम्‍यबुद्धि ‘जैसा मैं,वैसा दूसरा’ पहले से ही मन में सोलहों आने जमी हुई न हो तो कोरे तार्किक सार आसार के विचार से कर्तव्‍य अकर्तव्‍य का सदैव अचूक निर्णय होना सम्‍भव नहीं है और फिर ऐसी घटना हो जाने की भी सम्‍भावना रहती है जैसे कि मोर नाचता है, इसलिये मोरनी भी नाचने लगती है। अर्थात देखा देखी साधै जोग: छीजै काया, बाढ़ै रोग’’ इस लोकोक्ति के अनुसार ढोंग फैल सकेगा और समाज की हानि होगी। मिल प्रभृति उपयुक्‍तावादी पश्चिमी नीतिशास्‍त्रज्ञों के उपपादन में यही तो मुख्‍य अपूर्णता है। गरूड़ झपट कर अपने पंजे से मेमन को आकाश में उठा ले जाता है, इसलिये देखादेखी यदि कौवा भी ऐसा ही करने लगे तो फँसे बिना न रहेगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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