गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
बारहवां प्रकरण
गीता के अनुवाद में इन श्लोकों के नीचे जो टिप्पणियां दी हुर्इ हैं, उनसे यह बात स्पष्ट देख पड़ेगी। इसके अतिरिक्त स्थिप्रज्ञ के वर्णन में ही कहा है कि ‘’इन्द्रियों को अपने काबू में रख कर व्यवहार करने वाला" अर्थात् वह निष्काम कर्म करने वाला होता है[1], और जिस श्लोक में यह निराश्रय’ पद आया है, वहीं यह वर्णन है कि ‘ कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति स: ‘’अर्थात् समस्त कर्म करके भी वह अलिप्त रहता है। बारहवें अध्याय के अनिकेत आदि पदों के त्याग की ( कर्मत्याग की नहीं ) प्रशंसा कर चुकने पर[2], फलाशा त्याग कर कर्म करने से मिलनेवाली शान्ति का दिग्दर्शन करने के लिये आगे भगवद्भक्त के लक्षण बतालाये हैं; और ऐसे ही अठारहवें अध्याय में भी यह दिखलाने के लिये कि आसक्ति विरहित कर्म करने से शान्ति कैसे मिलती है, ब्रह्मभूत पुरुष का पुन: वर्णन आया है[3]। अतएव यह मानना पड़ता है कि ये सब वर्णन संन्यास मार्गवालों के नहीं हैं, किन्तु कर्मयोगी पुरुषों के ही हैं। कर्मयोगी स्थितप्रज्ञ और संन्यासी स्थितप्रज्ञ –दोनों का ब्रह्मज्ञान, शान्ति, आत्मौपम्य और निष्काम बुद्धि अथवा नीतितत्व पृथक् पृथक् नहीं हैं। दोनों ही पूर्ण ब्रह्मज्ञानी रहते हैं, इस कारण दोनों की ही मानसिक स्थिति, और शान्ति एक सी होती है; इन दोनों में कर्मदृष्टि से महत्व का भेद यह है कि पहला निरी शान्ति में ही डूबा रहता है और किसी की भी चिन्ता नहीं करता, तथा दूसरा अपनी शान्ति एवं आत्मौपम्य-बुद्धि का व्यवहार में यथासम्भव नित्य उपयोग किया करता है। अत: यह न्याय से सिद्ध है कि व्यावहारिक धर्म-अधर्म विवेचन के काम में जिसके प्रत्यक्ष व्यवहार का प्रमाण मानना है, वह स्थितप्रज्ञ कर्म करने वाला ही होना चाहिये; यहाँ कर्मत्यागी साधु अथवा भिक्षु का टिकना सम्भव नहीं है। गीता में अर्जुन को किये गये समग्र उपदेश का सार यह है कि कर्मों के छोड़ देने की न तो ज़रूरत है और न वे छूट ही सकते हैं; ब्रह्मात्मैक्य का ज्ञान प्राप्त कर कर्मयोगी के समान व्यवसायात्मक-बुद्धि को साम्यावस्था में रखन चाहिये, ऐसा करने से उसके साथ ही साथ वासनात्मक-बुद्धि भी सदैव शुद्ध, निर्मम और पवित्र रहेगी, एवं कर्म का बन्धन न होगा। यही कारण है कि इस प्रकरण में आरम्भ के श्लोक में, यह धर्मतत्व बतलाया गया है कि ‘’केवल वाणी और मन से ही नहीं, किन्तु जो प्रत्यक्ष कर्म से सब का स्नेही और हित हो गया, उसे ही धर्मज्ञ कहना चाहिये। ‘’जाजलि को उक्त धर्मतत्व बतलाये समय तुलाधार ने वाणी और मन के साथ ही, बल्कि इससे भी पहले उसमें कर्म का भी प्रधानता से निर्देश किया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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